श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी80. हाहाकार
हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज। निद्रा में पड़ी हुई विष्णुप्रिया जी ने करवट बदलीं। सहसा वे चौक पड़ीं और जल्दी से उठकर बैठ गयीं। मानो उनके ऊपर चौडे़ मैदान में बिजली गिर पड़ी हो, अथवा सोते समय किसी ने उनका सर्वस्व हरण कर लिया हो। वे भूली-सी, पगली-सी, बेसुधि-सी, आँखों को मलती हुई चारों ओर देखने लगीं। उन्हें जागते हुए भी स्वप्नका-सा अनुभव होने लगा। वे अपने हाथों से प्रभु की शय्या को टटोलने लगीं, किंतु अब वहाँ था ही क्या! शुक तो पिंजड़ा परित्याग करके वनवासी बन गया। अपने प्राणनाथ का पंलग पर न पाकर विष्णुप्रिया जी ने जोरों के साथ चीत्कार मारी और ‘हा नाथ! हा प्राणप्यारे! मुझ दु:खिनी को इस प्रकार धोखा देकर चले गये।’ यह कहते-कहते जोरों से नीचे गिर पड़ीं और ऊपर से गिरते ही बेसूधि हो गयीं। उनके क्रन्दन की ध्वनि शचीमाता के कानों में पड़ी। उनकी उस करुणक्रन्दन से बेहोशी दूर हुई। वहीं पड़े-पड़े उन्होंने कहा- ‘बेटी! बेटी! क्या मैं सचमूच लुट गयी? क्या मेरा इकलौता बेटा मुझे धोखा देकर चला गया? क्या वह मेरी आँखों का तारा निकलकर मुझ विधवा को इस वृद्धावस्था में अन्धी बना गया? मेरी आँखों के दो तारे थे। एक के निकल जाने पर सोचती थी, एक आँख से ही काम चला लूंगी। आज तो दूसरा भी निकल गया। अब मुझ अन्धी को संसार सूना-ही-सूना दिखायी पड़ेगा। अब मुझ अन्धी की लाठी कौन पकडे़गा? बेटी! विष्णुप्रिया! बोलती क्यों नहीं? क्या निमाई सचमुच चला गया?’ विष्णुप्रिया बेहोश थीं, उनके मुख में से आवाज ही नहीं निकलती थी। वे सास की बातों को न सूनती हुई जोरों से रुदन करने लगीं। दु:खिनी माता उठी और लड़खड़ाती हुई प्रभु के शयन-भवन में पहुँची। वहाँ उसने प्रभु के पलंग को सूना देखा। विष्णुप्रिया नीचे पड़ी हुई रुदन कर रही थीं। माता की अधीरता का ठिकाना नहीं रहा। वे जोरों से रुदन करने लगीं- ‘बेटा निमाई! तू कहाँ चला गया? अरे, अपनी इस बूढ़ी माता को इस तरह धोखा मत दे। बेटा! तू कहाँ छिप गया है, मुझे अपनी सूरत तो दिखा जा। बेटा! तू रोज प्रात:काल मुझे उठकर प्रणाम किया करता था। आज मैं कितनी देर से खड़ी हूँ, उठकर प्रणाम क्यों नहीं करता!’ इतना कहकर माता दीपक को उठाकर घर के चारों ओर देखने लगी। मानो मेरा निमाई यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। माता पलंग के नीचे देख रही थीं। बिछौना को बार-बार टटोलतीं, मानो निमाई इसी में छिप गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान के रास में सहसा अन्तर्धान हो जाने पर वियोग दु:ख से व्याकुल हुई गोपिकाएँ रुदन कर रही हैं- ‘हा नाथ! हा रमण करने वाले! ओ हमारे प्राणों से भी प्यारे! ओ महापराक्रमी! प्यारे! तुम कहाँ हो? तुम्हारे वियोग से हम अत्यन्त ही दीन हैं। हम आपकी दास हैं; हमें अपने दर्शन दो।’ श्रीमद्भा. 10/30/40