श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी79. परम सहृदय निमाई की निर्दयता
वे ही जाडे़ के दिन थे, जिन दिनों प्रभु के अग्रज विश्वरूप घर छोड़कर गये थे वही समय था और वही घाट उस समय नाव कहाँ मिलती। विश्वरूप जी ने भी हाथों से तैरकर ही गंगा जी को पार किया था। प्रभु ने भी अपने बड़े भाई के ही पथ का अनुसरण करना निश्चय किया। उन्होंने घाट पर खडे़ होकर पीछे फिरकर एक बार नवद्वीप नगरी के अन्तिम दर्शन किये। वे हाथ जोड़कर गद्गदकण्ठ से कहने लगे- ‘हे ताराओं से भरी हुई रात्रि! तू मेरे गृह-त्याग की साक्षी है। ओ दसों दिशाओ! तुम मुझे घर से बाहर होता हुआ देख रही हो। हे धर्म! तुम मेरी सभी चेष्टाओं को समझने वाले हो। मैं जीवों के कल्याण के निमित्त घर-बार छोड़ रहा हूँ। हे विश्वब्रह्माण्ड के पालनकर्ता! मैं अपनी वृद्धा माता और युवती पत्नी को तुम्हारे ही सहारे पर छोड़ रहा हूँ। तुम्हारा नाम विश्वम्भर है। तुम सभी प्राणियों का पालन करते हो और करते रहोगे। इसलिये मैं निश्चित होकर जा रहा हूँ।’ यह कहकर प्रभु ने एक बार नवद्वीप नगरी को और फिर भगवती भागीरथी को प्रणाम किया और जल्दी से गंगा जी के शीतल जल के बहते हुए प्रवाह में कूद पड़े और तैरकर उस पार हुए। उसी प्रकार वे गीले वस्त्रों से ही कटवा (कण्टक नगर) केशव भारती के गंगा तट वाले आश्रम पहुँच गये। जिस निर्दय घाटने विश्वरूप और विश्वभर दोनों भाइयों को पार करके सदा के लिये नवद्वीप के नर-नारियों से पृथक कर दिया, वह आज तक भी नवद्वीप में ‘निर्दय घाट’ के नाम से प्रसिद्ध होकर अपनी लोक-प्रसिद्ध निर्दयता का परिचय दे रहा है। |