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ब्राह्मण की पत्नी रोती-रोती बोली- "प्राणनाथ! पति को पत्नी से जो प्राप्त होना चाहिये, वह मुझसे आपको प्राप्त हो गया। जिस उद्देश्य के लिए पुरुष स्त्री से ब्याह करता है, वह मैंने आपके लिए पूरा कर दिया है। मेरे गर्भ से आपके एक पुत्री और एक पुत्र उत्पन्न हो चुके हैं। मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। मेरे न होने पर भी आप अकेले ही बच्चों को पाल-पोस सकते हैं, किन्तु आपके बिना मुझसे वह नहीं हो सकेगा। इसके अलावा दुष्टों से भरे हुए इस संसार में किसी अनाथ स्त्री का जीना बड़ा मुश्किल हैं। जैसे चील-कौए बाहर फेंके हुए मांस के टुकड़ों को उठा ले जाने की ताक में मंडराते रहते हैं, वैसे ही पति के मरने पर जैसे कुत्ते टूट पड़ते हैं और चारों तरफ से उसे खींचने लगते हैं वैसे ही पति के मरने पर पत्नी को बदमाश लोग फंसा लेते हैं और वह स्त्री उनके चक्कर में पड़कर ठोकरें खाती-फिरती है। | ब्राह्मण की पत्नी रोती-रोती बोली- "प्राणनाथ! पति को पत्नी से जो प्राप्त होना चाहिये, वह मुझसे आपको प्राप्त हो गया। जिस उद्देश्य के लिए पुरुष स्त्री से ब्याह करता है, वह मैंने आपके लिए पूरा कर दिया है। मेरे गर्भ से आपके एक पुत्री और एक पुत्र उत्पन्न हो चुके हैं। मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। मेरे न होने पर भी आप अकेले ही बच्चों को पाल-पोस सकते हैं, किन्तु आपके बिना मुझसे वह नहीं हो सकेगा। इसके अलावा दुष्टों से भरे हुए इस संसार में किसी अनाथ स्त्री का जीना बड़ा मुश्किल हैं। जैसे चील-कौए बाहर फेंके हुए मांस के टुकड़ों को उठा ले जाने की ताक में मंडराते रहते हैं, वैसे ही पति के मरने पर जैसे कुत्ते टूट पड़ते हैं और चारों तरफ से उसे खींचने लगते हैं वैसे ही पति के मरने पर पत्नी को बदमाश लोग फंसा लेते हैं और वह स्त्री उनके चक्कर में पड़कर ठोकरें खाती-फिरती है। | ||
− | आप न रहे तो इन अनाथ बच्चों की देखभाल भी मुझसे अकेले नहीं हो सकेगी। आपके बिना ये दोनों बच्चे वैसे ही तड़प-तड़पकर प्राण दे देंगे, जैसे सरोवर का सारा पानी सूख जाने पर मछलियाँ। इसलिये नाथ, मुझे ही राक्षस के पास जाने दीजिये। पति के जीते-जी पत्नी का स्वर्गवास हो जाये, इससे बढ़कर भाग्य की बात और क्या हो सकती हैं! शास्त्र भी तो यही कहते हैं। सो आप मुझे आज्ञा दें! मेरे बच्चों की रक्षा करें। मैं जीवन का सुख भोग चुकी हूँ। एक साध्वी नारी का जो | + | आप न रहे तो इन अनाथ बच्चों की देखभाल भी मुझसे अकेले नहीं हो सकेगी। आपके बिना ये दोनों बच्चे वैसे ही तड़प-तड़पकर प्राण दे देंगे, जैसे सरोवर का सारा पानी सूख जाने पर मछलियाँ। इसलिये नाथ, मुझे ही राक्षस के पास जाने दीजिये। पति के जीते-जी पत्नी का स्वर्गवास हो जाये, इससे बढ़कर भाग्य की बात और क्या हो सकती हैं! शास्त्र भी तो यही कहते हैं। सो आप मुझे आज्ञा दें! मेरे बच्चों की रक्षा करें। मैं जीवन का सुख भोग चुकी हूँ। एक साध्वी नारी का जो धर्म है, उसका नियम से पालन करती हूँ। आपकी सेवा-सुश्रुषा में मैंने कोई कसर नहीं रक्खी है तो यह निश्चित है कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा। मुझे मरने का कोई दुःख नही है। मेरी मृत्यु के बाद आप चाहें तो दूसरी पत्नी ला सकते हैं। अब मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दें ताकि मैं राक्षस का भोजन बनूँ।" पत्नी की ये व्यथाभरी बातें सुनकर ब्राह्मण से न रहा गया। उसने स्त्री को छाती से लगा लिया और असहाय-सा होकर दीन स्वर में आंसू बहाने लगा। अपनी पत्नी से प्यार करते हुए वह बोला- "प्रिये, ऐसी बातें न करो। मुझसे सुना नहीं जाता।" |
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत कथा -राजगोपालाचार्य पृ. 50]] | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत कथा -राजगोपालाचार्य पृ. 50]] |
01:23, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
15.बकासुर-वध
"और अपनी बेटी की भी बलि कैसे चढ़ा दूँ? यह तो ईश्वर की दी हुई धरोहर है, जिसे सुयोग्य वर को ब्याह देना मेरा कर्तव्य है। परमात्मा ने हमारे वंश को चलाये रखने के लिये यह कन्या दी हैं। इसे मौत के मुँह में डालना घोर पाप होगा और जो पुत्र मुझे और हमारे पितरों को जलांजलि देंगे तथा श्राद्धकर्म करने का अधिकारी हैं, उसको कैसे काल कवलित होने दूँ? हाय, तुमने मेरा कहा नहीं माना! उसी का फल अब भुगतना पड़ रहा है। और यदि मैं शरीर त्यागता हूँ तो फिर इन अनाथ बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? हाय दैव! मैं अब क्या करूँ? और कुछ करने से तो अच्छा होगा।" कहते-कहते ब्राह्मण सिसक-सिसक कर रो पड़ा। ब्राह्मण की पत्नी रोती-रोती बोली- "प्राणनाथ! पति को पत्नी से जो प्राप्त होना चाहिये, वह मुझसे आपको प्राप्त हो गया। जिस उद्देश्य के लिए पुरुष स्त्री से ब्याह करता है, वह मैंने आपके लिए पूरा कर दिया है। मेरे गर्भ से आपके एक पुत्री और एक पुत्र उत्पन्न हो चुके हैं। मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। मेरे न होने पर भी आप अकेले ही बच्चों को पाल-पोस सकते हैं, किन्तु आपके बिना मुझसे वह नहीं हो सकेगा। इसके अलावा दुष्टों से भरे हुए इस संसार में किसी अनाथ स्त्री का जीना बड़ा मुश्किल हैं। जैसे चील-कौए बाहर फेंके हुए मांस के टुकड़ों को उठा ले जाने की ताक में मंडराते रहते हैं, वैसे ही पति के मरने पर जैसे कुत्ते टूट पड़ते हैं और चारों तरफ से उसे खींचने लगते हैं वैसे ही पति के मरने पर पत्नी को बदमाश लोग फंसा लेते हैं और वह स्त्री उनके चक्कर में पड़कर ठोकरें खाती-फिरती है। आप न रहे तो इन अनाथ बच्चों की देखभाल भी मुझसे अकेले नहीं हो सकेगी। आपके बिना ये दोनों बच्चे वैसे ही तड़प-तड़पकर प्राण दे देंगे, जैसे सरोवर का सारा पानी सूख जाने पर मछलियाँ। इसलिये नाथ, मुझे ही राक्षस के पास जाने दीजिये। पति के जीते-जी पत्नी का स्वर्गवास हो जाये, इससे बढ़कर भाग्य की बात और क्या हो सकती हैं! शास्त्र भी तो यही कहते हैं। सो आप मुझे आज्ञा दें! मेरे बच्चों की रक्षा करें। मैं जीवन का सुख भोग चुकी हूँ। एक साध्वी नारी का जो धर्म है, उसका नियम से पालन करती हूँ। आपकी सेवा-सुश्रुषा में मैंने कोई कसर नहीं रक्खी है तो यह निश्चित है कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा। मुझे मरने का कोई दुःख नही है। मेरी मृत्यु के बाद आप चाहें तो दूसरी पत्नी ला सकते हैं। अब मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दें ताकि मैं राक्षस का भोजन बनूँ।" पत्नी की ये व्यथाभरी बातें सुनकर ब्राह्मण से न रहा गया। उसने स्त्री को छाती से लगा लिया और असहाय-सा होकर दीन स्वर में आंसू बहाने लगा। अपनी पत्नी से प्यार करते हुए वह बोला- "प्रिये, ऐसी बातें न करो। मुझसे सुना नहीं जाता।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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