श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति
उत्तर में भगवान दिव्य गीतोपदेश देते हैं। इससे पता चलता है कि अर्जुन गीता सुनने के लिए स्वयं उन्मुख नहीं हुए, प्रत्युत भगवान के द्वारा उन्मुख किए गए। अतः यह ‘भगवद्गीता’ है, ‘अर्जुनगीता’ या ‘कृष्णार्जुनगीता’ नहीं। इसको ‘भगवद्गीता’ कहने का तात्पर्य यही है कि इसमें श्रीकृष्णार्जुन-संवाद होते हुए भी अर्जुन भगवत्प्रेरित होकर ही बोल रहे हैं अर्थात इसमें केवल भगवान के वचन हैं। अब गीता-परिणाम की संगति पर विचार किया जाता है। महाभारत के वक्ता महर्षि वैशम्पायन हैं और श्रोता महाराज जनमेजय हैं। महर्षि वैशम्पायन ने संजय और धृतराष्ट्र के संवाद को ध्यान में रखते हुए ही गीता के परिणाम का कथन किया है। गीता में ‘श्रीभगवानुवाच’ अट्ठाईस बार, ‘अर्जुन उवाच’ इक्कीस बार, ‘संजय उवाच’ नौ बार और ‘धृतराष्ट्र उवाच’ एक बार आया है। ‘श्रीभगवानुवाच’ और भगवत- शरणागति के बाद भगवत्प्रेरित ‘अर्जुन उवाच’ को श्लोकात्मक मान लेने पर गीता का परिणाम (745 श्लोक) सिद्ध हो जाता है। पिंगलाचार्य-रचित ‘पिंगलच्छन्दः सूत्रम्’ ग्रंथ के अनुसार एक अक्षर का और एक पद का भी छंद होता है। एक गाथाछंद होता है, जिसमें अक्षरों और मात्राओं का भी नियम नहीं है। ‘दुर्गासप्तशती’ में भी ‘उवाच’ को पूरा श्लोक माना गया है। इस दृष्टि से गीता-परिणाम में भी ‘उवाच’ को पूरा श्लोक मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हाँ, कुछ स्थानों पर शंका हो सकती है, जिसका समाधान आगे किया जा रहा है। गीता-परिणाम के अनुसार भगवान के छः सौ बीस श्लोक हैं, जबकि गीता की प्रचलित प्रति के अनुसार पाँच सौ चौहत्तर श्लोक ही होते हैं। अतः अब शेष छियालीस श्लोकों पर विचार करना है।
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