श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
जैसे बीज ही वृक्ष, शाखाएँ, पत्ते, फूल आदि के रूप में होता है; परंतु वृक्ष, शाखाएँ, पत्ते आदि में बीज को खोजेंगे तो उनमें बीज नहीं मिलेगा। कारण कि बीज उनमें तत्त्व रूप से विद्यमान रहता है। ऐसे ही सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं; परंतु उन भावों में मेरे को खोजेंगे तो उनमें मैं नहीं मिलूँगा।[1] कारण कि मैं उनमें मूलरूप से और तत्त्वरूप से विद्यमान हूँ। अतः मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं अर्थात सब कुछ मैं ही मैं हूँ। जैसे, बादल आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, आकाश में ही रहते हैं और आकाश में ही लीन होते हैं; परंतु आकाश ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है। न आकाश में बादल रहते हैं और न बादलों में आकाश रहता है। ऐसे ही आठवें श्लोक से लेकर यहाँ तक जितनी (सत्रह) विभूतियाँ बतायी गयी हैं, वे सब मेरे से ही उत्पन्न होती हैं, मेरे में ही रहती हैं और मेरे में ही लीन हो जाती है। परंतु वे मेरे में नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूँ। मेरे सिवाय उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इस दृष्टि से सब कुछ मैं ही हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान के सिवाय जितने सात्त्विक, राजस और तामस भाव अर्थात प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ दिखाई देती हैं, उनकी सत्ता मानकर और उनको महत्ता देकर ये मनुष्य उनमें फँस रहे हैं। अतः भगवान उन मनुष्यों का लक्ष्य इधर कराते हैं कि इन सब पदार्थों और क्रियाओं में सत्ता और महत्ता मेरी ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज