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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
यतो यतो निश्चरति मनश्चंंचमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 26 ।।
अर्थ- यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही लगाए।[1]
व्याख्या- ‘यतो यतो निश्चरति........आत्मन्येव वशं नयेत्’- साधक ने जो ध्येय बनाया है, उसमें यह मन टिकता नहीं, ठहरता नहीं। अतः इसको अस्थिर कहा गया है। यह मन तरह-तरह के सांसारिक भोगों का, पदार्थों का चिंतन करता है। अतः इसको ‘चंचल’ कहा गया है। तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मा में स्थिर होता है और न संसार को ही छोड़ता है। इसलिए साधक को चाहिए कि यह मन जहाँ-जहाँ जाए, जिस-जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए और जब-जब जाए, इसको वहाँ-वहाँ से, उस-उस कारण से वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मा में लगाएँ। इस स्थिर और चंचल मन का नियमन करने में सावधानी रखेंं, ढिलाई न करेंं। मन को परमात्मा में लगाने का तात्पर्य है कि जब यह पता लगे कि मन पदार्थों का चिंतन कर रहा है, तभी ऐसा विचार करे कि चिंतन की वृत्ति और उसके विषय का आधार और प्रकाशक परमात्मा ही हैं। यही परमात्मा में मन लगाना है।
परमात्मा में मन लगाने की युक्तियाँ
- मन जिस किसी इंद्रिय के विषय में, जिस किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि में चला जाय अर्थात उसका चिंतन करने लग जाए, उसी समय उस विषय आदि से मन को हटाकर अपने ध्येय- परमात्मा में लगाएँ। फिर चला जाए तो फिर लाकर परमात्मा में लगाएँ। इस प्रकार मन को बार-बार अपने ध्येय में लगाते रहेंं।
- जहाँ-जहाँ मन जाए, वहाँ-वहाँ ही परमात्मा को देखेंं। जैसे गंगा जी याद जा जाएँ, तो गंगाजी के रूप में परमात्मा ही हैं, गाय याद आ जाए, तो गाय रूप से परमात्मा ही हैं- इस तरह मन को परमात्मा में लगाए। दूसरी दृष्टि से, गंगाजी आदि में सत्ता रूप में परमात्मा-ही-परमात्मा हैं; क्योंकि इनसे पहले भी परमात्मा ही थे, इनके मिटने पर भी परमात्मा ही रहेंगे और इनके रहते हुए भी परमात्मा ही हैं- इस तरह मन को परमात्मा में लगाएँ।
- साधक जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता है, तब संसार की बातें याद आती हैं। इससे साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसार का काम करता हूँ, तब इतनी बातें याद नहीं आतीं, इतना चिंतन नहीं होता; परंतु जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता हूँ, तब मन में तरह-तरह की बातें याद आने लगती हैंं। पर ऐसा समझकर साधक को घबराना नहीं चाहिए; क्योंकि जब साधक का उद्देश्य परमात्मा का बन गया, तो अब संसार के चिंतन के रूप में भीतर से कूड़ा-कचरा निकल रहा है, भीतर से सफाई हो रही है। तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करते समय भीतर जमा हुए पुराने संस्कारों को बाहर निकलने का मौका नहीं मिलता। इसलिए सांसारिक कार्य छोड़कर एकान्त में बैठने से उनको बाहर निकलने का मौका मिलता है, और वे बाहर निकलने लगते हैं।
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