श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय प्रकृतेर्गुणसंमूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । व्याख्या- ‘प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु’- सत्त्त्व, रज और तम- ये तीनों प्रकृतिजन्य गुण मनुष्य को बाँधने वाले हैं। सत्त्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से, रजोगुण कर्म की आसक्ति से और तमोगुण प्रमाद, आलस्य तथा निद्रा से मनुष्य को बाँधता है।[1] उपर्युक्त पदों में उन अज्ञानियों का वर्णन है, जो प्रकृतिजन्य गुणों से अत्यंत मोहित अर्थात बँधे हुए हैं; परंतु जिनका शास्त्रों में शास्त्रविहित शुभकर्मों में तथा उन कर्मों के फलों में श्रद्धा-विश्वास है। इसी अध्याय के पचीसवें-छब्बीसवें श्लोकों में ऐसे अज्ञानी पुरुषों का ‘सक्ताः, अविद्वांसः’ और ‘कर्मसंगिनाम्, अज्ञानाम्’ नाम से वर्णन हुआ है। लौकिक और पारलौकिक भोगों की कामना के कारण ये पुरुष पदार्थों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। इस कारण इनसे ऊँचे उठने की बात समझ नहीं सकते। इसीलिये भगवान ने इन्हें अज्ञानी कहा है। ‘तानकृत्स्नविदो मन्दान्’- अज्ञानी मनुष्य शुभकर्म तो करते हैं, पर करते हैं नित्य-निरन्तर न रहने वाले नाशवान पदार्थों की प्राप्ति के लिये। धनादि प्राप्त पदार्थों में वे ममता रखते हैं और अप्राप्त पदार्थों की कामना करते हैं। इस प्रकार ममता और कामना से बँधते रहने के कारण वे गुणों[2] और कर्मों के तत्त्व को पूर्णरूप से नहीं जान सकते। अज्ञानी मनुष्य शास्त्रविहित कर्म और उनकी विधि को तो ठीक तरह से जानते हैं पर गुणों और कर्मों के तत्त्व को ठीक तरह से न जानने के कारण उन्हें ‘अकृत्स्नविदः’[3] कहा गया है और सांसारिक भोग तथा संग्रह में रुचि होने के कारण उन्हें ‘मंदान्’[4] कहा गया है। ‘कृत्स्नविन्न विचालयेत्’- गुण और कर्म विभाग को पूर्णतया जानने वाले तथा कामना ममता से रहित ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह पूर्ववर्णित[5] अज्ञानी पुरुषों को शुभ कर्मों से विचलित न करें, जिससे वे मंदबुद्धि पुरुष अपनी वर्तमान स्थिति से नीचे न गिर जायँ। इसी अध्याय के पचीसवें-छब्बीसवें श्लोकों में ऐसे ज्ञानी पुरुषों का ‘असक्तः, विद्वान्’ और ‘युक्तः, विद्वान्’ नाम से वर्णन हुआ है। भगवान ने तत्त्वज्ञ महापुरुष को पचीसवें श्लोक में ‘कुर्यात्’ पद से स्वयं कर्म करने की तथा छबीसवें श्लोक में ‘जोषयेत्’ पद से अज्ञानी पुरुषों से भी वैसे ही कर्म करवाने की आज्ञा दी थी। परंतु यहाँ भगवान ने ‘न विचालयेत्’ पदों से वैसी आज्ञा न देकर मानो उसमें कुछ ढील दी है कि ज्ञानी पुरुष अधिक नहीं तो कम से कम अपने संकेत, वचन और क्रिया से अज्ञानी पुरुषों को विचलित न करे। कारण कि जीवन्मुक्त महापुरुष पर भगवान और शास्त्र अपना शासन नहीं रखते। उनके कहलाने वाले शरीर से स्वतः स्वाभाविक लोकसंग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं।[6] तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मयोगी हो अथवा ज्ञानयोगी- सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी उसका कर्मों और पदार्थो के साथ किसी प्रकार का संबंध स्वतः नहीं रहता, जो वस्तुतः था नहीं। अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग प्राप्ति के लिये शुभ कर्म किया करते हैं। इसलिये भगवान ने ऐसे मनुष्यों को विचलित न करने की आज्ञा दी है अर्थात वे महापुरुष अपने संकेत, वचन और क्रिया से ऐसी कोई बात प्रकट न करें, जिससे उन सकाम पुरुषों की शास्त्रविहित शुभ-कर्मों में अश्रद्धा, अविश्वास या अरुचि पैदा हो जाय और वे उन कर्मो का त्याग कर दें; क्योंकि ऐसा करने से उनका पतन हो सकता है। इसलिये ऐसे पुरुषों को सकाम भाव से विचलित करना है, शास्त्रीय कर्मों से नहीं। जन्म-मरणरूप बंधन से छुटकारा दिलाने के लिये उन्हें सकाम भाव से विचलित करना उचित भी है और आवश्यक भी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 14।6-8
- ↑ पदार्थों
- ↑ पूर्णतया न जानने वाले
- ↑ मंदबुद्धि
- ↑ सकाम भावपूर्वक शुभ-कर्मों में लगे हुए
- ↑ क्रिया और कर्म- इन दोनों में भी भेद हैं। क्रिया के साथ जब ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अहंभाव रहता है, तब वह क्रिया ‘कर्म’ हो जाती है और उसका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित- तीन प्रकार का फल मिलता है (गीता 18।12)। परंतु जहाँ ‘मैं कर्ता नही हूँ’ ऐसा भाव रहता है, वहाँ वह क्रिया कर्म नहीं बनती अर्थात फलदायक नहीं होती। तत्त्वज्ञ महापुरुष के द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते, प्रत्युत केवल क्रियाएँ (चेष्टामात्र) होती हैं (गीता 3।33)।
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