श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- पीछे के चार श्लोक में युद्ध न करने से हानि बताकर अब भगवान आगे के दो श्लोकों में युद्ध करने से लाभ बताते हैं। हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । व्याख्या- ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’- इसी अध्याय के छठे श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि हम लोगों को इसका भी पता नहीं है कि युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। अर्जुन के इस संदेह को लेकर भगवान यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्ध में तुम कर्ण आदि के द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्ग को चले जाओगे और अगर युद्ध में तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहाँ पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू है। तात्पर्य है कि युद्ध करने से तो तुम्हारा दोनों तरफ से लाभ ही लाभ है और युद्ध न करने से दोनों तरफ से हानि ही हानि है। अतः तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। ‘तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः’- यहाँ ‘कौन्तेय’ संबोधन देने का तात्पर्य है कि जब मैं संधि का प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास गया था, तब माता कुंती ने तुम्हारे लिए यही संदेश भेजा था कि तुम युद्ध करो। अतः तुम्हें युद्ध से निवृत्त नहीं होना चाहिये, प्रत्युत युद्ध का निश्चय करके खड़े हो जाना चाहिये। अर्जुन का युद्ध न करने का निश्चय था और भगवान ने इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में युद्ध करने की आज्ञा दे दी। इससे अर्जुन के मन में संदेह हुआ कि युद्ध करना ठीक है या न करना ठीक है। अतः यहाँ भगवान उस संदेह को दूर करने के लिए कहते हैं कि तुम युद्ध करने का एक निश्चय कर लो, उसमें संदेह मत रखो। यहाँ भगवान का तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि मनुष्य को किसी भी हालत में प्राप्त कर्तव्य का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। कर्तव्य का पालन करने में ही मनुष्य की मनुष्यता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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