प्रथम अध्याय
यहाँ शंका हो सकती है कि दुर्योधन को तो पितामह भीष्म के पास जाना चाहिए था, जो कि सेनापति थे। पर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य के पास ही क्यों गया? इसका समाधान यह है कि द्रोण और भीष्म- दोनों उभय-पक्षपाती थे अर्थात वे कौरव और पांडव- दोनों का ही पक्ष रखते थे। उन दोनों में भी द्रोणाचार्य को ज्यादा राजी करना था; क्योंकि द्रोणाचार्य के साथ दुर्योधन का गुरु के नाते तो स्नेह था, पर कुटुम्ब के नाते स्नेह नहीं था; और अर्जुन पर द्रोणाचार्य की विशेष कृपा थी। अतः उनको राजी करने के लिए दुर्योधन का उनके पास जाना ही उचित था। व्यवहार में भी यह देखा जाता है कि जिसके साथ स्नेह नहीं है, उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मनुष्य उसको ज्यादा आदर देकर राजी करता है।
दुर्योधन के मन में यह विश्वास था कि भीष्म जी तो हमारे दादा जी ही हैं; अतः उनके पास न जाऊँ तो भी कोई बात नहीं है। न जाने से अगर वे नाराज भी हो जायँगे तो मैं किसी तरह से उनको राजी कर लूँगा। कारण कि पितामह भीष्म के साथ दुर्योधन का कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था, भीष्म का भी उसके साथ कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था। इसलिए भीष्म जी ने दुर्योधन को राजी करने के लिए जोर से शंख बजाया है।[1]
‘वचनमब्रवीत्’- यहाँ ‘अब्रवीत्’ कहना ही पर्याप्त था; क्योंकि ‘अब्रवीत्’ क्रिया के अंतर्गत ही ‘वचनम्’ आ जाता है अर्थात दुर्योधन बोलेगा, तो वचन ही बोलेगा। इसलिए यहाँ ‘वचनम्’ शब्द की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी ‘वचनम्’ शब्द देने का तात्पर्य है कि दुर्योधन नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है, जिससे द्रोणाचार्य के मन में पांडवों के प्रति द्वेष पैदा हो जाय और वे हमारे ही पक्ष में रहते हुए ठीक तरह से युद्ध करें। जिससे हमारी विजय हो जाए, हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाए।
सम्बन्ध- द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन क्या वचन बोला- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। 3 ।।
अर्थ- हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूह रचना से खड़ी की हुई पांडवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।
व्याख्या- ‘आचार्य’- द्रोण के लिए ‘आचार्य’ संबोधन देने में दुर्योधन का यह भाव मालूम देता है कि आप हम सब के- कौरवों और पांडवों के आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखाने वाले होने से आप सब के गुरु हैं। इसलिए आपके मन में किसी का पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिए।
‘तव शिष्येण धीमता’- इन पदों का प्रयोग करने में दुर्योधन का भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने मारने के लिए पैदा होने वाले धृष्टद्युम्न को भी आपने अश्त्र-शस्त्र की विद्या सिखायी है; और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारने के लिए आपसे ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी है।
‘द्रुपदपुत्रेण’- यह पद कहने का आशय है कि आपको मारने के उद्देश्य को लेकर ही द्रुपद ने याज को उपयाज नामक ब्राह्मणों से यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न पैदा हुआ। वही यह द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न आपके सामने[2] सेनापति के रूप में खड़ा है।
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