श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय
अर्थ- अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इस कुटुम्ब- समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही हैं एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ में गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल भी रही है मेरा मन। भ्रमित- सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। व्याख्या- ‘दृष्द्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्’- अर्जुन को ‘कृष्ण’ नाम बहुत प्रिय था। यह संबोधन गीता में नौ बार आया है। भगवान श्रीकृष्ण के लिए दूसरा कोई संबोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान को अर्जुन का ‘पार्थ’ नाम बहुत प्यारा था। इसलिए भगवान और अर्जुन आपस की बोलचाल में ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगों में भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टि से संजय ने गीता के अंत में ‘कृष्ण’ और ‘पार्थ’ नाम का उल्लेख किया है- ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः’[1]।
धृतराष्ट्र ने पहले ‘समवेता युयुत्सवः’ कहा था और यहाँ अर्जुन ने भी ‘युयुत्सुं समुपस्थितम्’ कहा है; परंतु दोनों की दृष्टियों में बड़ा अंतर है। धृतराष्ट्र की दृष्टि में तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पांडु के पुत्र हैं- ऐसा भेद हैं; अतः धृतराष्ट्र ने वहाँ ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ कहा है। परंतु अर्जुन की दृष्टि में यह भेद नहीं है; अतः अर्जुन ने यहाँ ‘स्वजनम्’ कहा है, जिसमें दोनों पक्ष के लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र को तो युद्ध में अपने पुत्रों के मरने की आशंका से भय है, शोक है; परंतु अर्जुन को दोनों ओर के कुटुम्बियों के मरने की आशंका से शोक हो रहा है कि किसी भी तरफ का कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी।
अब तक ‘दृष्द्वा’ पद तीन बार आया है- ‘दृष्द्वा तु पांडवानीकम्’[2], ‘व्यवस्थितान्द्वष्द्वा धार्तराष्ट्रान्’[3]और यहाँ ‘दृष्द्वेमं स्वजनम्’[4]। इन तीनों का तात्पर्य है कि दुर्योधन का देखना तो एक तरह का ही रहा अर्थात दुर्योधन का तो युद्ध का ही एक भाव रहा; परंतु अर्जुन का देखना दो तरह का हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर वीरता में आकर युद्ध के लिए धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनों को देखकर कायरता से आविष्ट हो रहे हैं, युद्ध से उपरत हो रहे हैं और उनके हाथ से धनुष गिर रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18।78
- ↑ 1।2
- ↑ 1।20
- ↑ 1।28
- ↑ अवयव
- ↑ चिंता चितासमा ह्युक्ता बिंदुमात्रं विशेषतः। सजीवं दहते चिंता निर्जीवं दहते चिता।। ‘चिंता को चिता के समान कहा गया है, केवल एक बिंदु की ही अधिकता है। चिंता जीवित पुरुष को जलाती है और चिता मरे हुए पुरुष को जलाती है।’
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