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प्रथम अध्याय
संबंध- अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान ने क्या किया- इसको संजय आगे के दो श्लोक में कहते हैं।
- एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
- सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रतोत्तमम् ।। 24 ।।
- भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
- उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ।। 25 ।।
अर्थ- संजय बोले- हे भरtवंशी राजन् ! निद्राविजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य भाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथ को खड़ा करके इस तरह कहा कि ‘हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख।’
व्याख्या- ‘गुडाकेशेन’- ‘गुडाकेश’ शब्द के दो अर्थ होते हैं-
- ‘गुडा’ नाम मुड़े हुए का है और ‘केश’ नाम बालों का है। जिसके सिर के बाल मुड़े हुए अर्थात घुँघराले हैं, उसका नाम ‘गुडाकेश’ है।
- ‘गुडाका’ नाम निद्रा का है और ‘ईश’ नाम स्वामी का है। जो निद्रा का स्वामी है अर्थात निद्रा ले चाहे न ले- ऐसा जिसका निद्रा पर अधिकार है, उसका नाम ‘गुडाकेश’ है। अर्जुन के केश घुँघराले थे और उनका निद्रा पर आधिपत्य था; अतः उनको ‘गुडाकेश’ कहा गया है।
‘एवमुक्तः’- जो निद्रा- आलस्य के सुख का गुलाम नहीं होता और जो विषय- भोगों का दास नहीं होता, केवल भगवान का ही दास[1] होता है, उस भक्त की बात भगवान सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञा का पालन भी करते हैं। इसलिए अपने सखा भक्त अर्जुन के द्वारा आज्ञा देने पर अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में अर्जुन का रथ खड़ा कर दिया।
‘हृषीकेशः’- इंद्रियों का नाम ‘हृषीक’ है। जो इंद्रियों के ईश अर्थात स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोक में और यहाँ ‘हृषीकेश’ कहने का तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि सब के प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देने वाले हैं, वे ही अंतर्यामी भगवान यहाँ अर्जुन की आज्ञा का पालन करने वाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुन पर कितनी अधिक कृपा है!
‘सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्’- दोनों सेनाओं के बीच में जहाँ ख़ाली जगह थी, वहाँ भगवान ने अर्जुन के श्रेष्ठ रथ को खड़ा कर दिया।
‘भीष्मद्रोणमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्’- उस रथ को भी भगवान ने विलक्षण चतुराई से ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँ से अर्जुन को कौटुम्बिक संबंध वाले पितामह भीष्म, विद्या के संबंध वाले आचार्य द्रोण एवं कौरव सेना के मुख्य-मुख्य राजा लोग सामने दिखायी दे सकें।
‘उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति’- ‘कुरु’ पद में धृतराष्ट्र के पुत्र और पांडु के पुत्र- ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख- ऐसा कहने का तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर यह बाव पैदा हो जाए कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्ष के हों, चाहे उस पक्ष के हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों, चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी।
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