श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
गीताभर में ‘पार्थ’ संबोधन की अड़तीस बार आवृत्ति हुई है। अर्जुन के लिए इतनी संख्या में और कोई संबोधन नहीं आया है। इससे मालूम होता है कि भगवान को ‘पार्थ’ संबोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसी रीति से अर्जुन को भी ‘कृष्ण’ संबोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसलिए गीता में ‘कृष्ण’ संबोधन की आवृत्ति नौ बार हुई है। भगवान के संबोधनों में इतनी संख्या में दूसरे किसी भी संबोधन की आवृत्ति नहीं हुई है। अंत में गीता का उपसंहार करते हुए संजय ने भी ‘कृष्ण’ और ‘पार्थ’ ये दोनों नाम लिए हैं। ‘तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम’- लक्ष्मी, शोभा, सम्पत्ति- ये सब ‘श्री’ शब्द के अंतर्गत हैं। जहाँ श्रीपति भगवान कृष्ण हैं, वहाँ श्री रहेगी ही। ‘विजय’ नाम अर्जुन का भी है और शूरवीरता आदि का भी। जहाँ विजय रूप अर्जुन होंगे, वहाँ शूरवीरता, उत्साह आदि क्षात्र ऐश्वर्य रहेंगे ही। ऐसे ही जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण होंगे, वहाँ ‘विभूति’- ऐश्वर्य, महत्ता, प्रभाव, सामर्थ्य आदि सब के सब भगवद्गुण रहेंगे ही; और जहाँ धर्मात्मा अर्जुन होंगे, वहाँ ‘ध्रुवा नीति’- अटल नीति, न्याय, धर्म आदि रहेंगे ही।
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