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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
कारण कि जडता की सहायता के बिना अभ्यास नहीं होता, जबकि स्वरूप के साथ जडता का लेशमात्र भी संबंध नहीं है। स्मृति अनुभवसिद्ध है, अभ्याससाध्य नहीं है। इसलिए एक बार स्मृति जाग्रत् होने पर फिर उसकी पुनरावृत्ति नहीं करनी पड़ती। स्मृति भगवान् की कृपा से जाग्रत् होती है। कृपा होती है भगवान् के सम्मुख होने पर और भगवान् की सम्मुखता होती है संसारमात्र से विमुख होने पर। जैसे अर्जुन ने कहा कि मैं केवल आपकी आज्ञा का ही पालन करूँगा- ‘करिष्ये वचनं तव’, ऐसे ही संसार का आश्रय छोड़कर केवल भगवान् के शरण होकर कह दे कि ‘हे नाथ! अब मैं केवल आपकी आज्ञा का ही पालन करूँगा।’ तात्पर्य है कि इस स्मृति की लब्धि में साधक की सम्मुखता और भगवान् की कृपा ही कारण है। इसलिए अर्जुन ने स्मृति के प्राप्त होने में केवल भगवान् की कृपा को ही माना है। भगवान् की कृपा तो मात्र प्राणियों पर अपार-अटूट-अखंड रूप से है। जब मनुष्य भगवान् के सम्मुख हो जाता है, तब उसको उस कृपा का अनुभव हो जाता है। ‘त्वत्प्रसादात् मयाच्युत’ पदों से अर्जुन कह रहे हैं कि आपने विशेषता से जो सर्वगुह्यतम तत्त्व बताया, उसकी मुझे विशेषता से स्मृति आ गयी कि मैं आपका ही था, आपका ही हूँ और आपका ही रहूँगा। यह जो स्मृति आ गयी है, यह मेरी एकाग्रता से सुनने की प्रवृत्ति से नहीं आयी है अर्थात् यह मेरे एकाग्रता से सुनने का फल नहीं है, प्रत्युत यह स्मृति तो आपकी कृपा से ही आयी है। पहले मैंने शरण होकर शिक्षा देने की प्रार्थना की थी और फिर यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा परंतु मेरे को जब तक वास्तविकता का बोध नहीं हुआ, तब तक आप मेरे पीछे पड़े ही रहे। इसमें तो आपकी कृपा ही कारण है। मेरे को जैसा सम्मुक होना चाहिए, वैसा मै सम्मुख नहीं हुआ हूँ; परंतु आपने बिना कारण मेरे पर कृपा की अर्थात् मेरे पर कृपा करने के लिए आप अपनी कृपा के परवश हो गए, वशीभूत हो गए और बिना पूछे ही आपने शरणागति की सर्वगुह्यतम बात कह दी [1]। उसी अहैतु की कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18।64-66
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