श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अर्जुन उवाच कच्चिदेतच्छ्रुतुं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । अर्थ- हे पृथनंदन! क्या तुमने एकाग्र-चित्त से इसको सुना? और हे धनंजय! क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ? व्याख्या- ‘कच्चिदेतच्छ्रुतुं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा’- ;एतत्' शब्द अत्यंत समीप का वाचक होता है और यहाँ अत्यंत समीप इकहत्तरवाँ श्लोक है। उनहत्तरवें-सत्तरवें श्लोकों में जो गीता का प्रचार और अध्ययन करने वाले की महिमा कही है, उस प्रचार और अध्ययन का तो अर्जुन के सामने कोई प्रश्न ही नहीं था। इसलिए पीछे के (इकहत्तरवें) श्लोक का लक्ष्य करके भगवान अर्जुन से कहते हैं कि ‘मनुष्य श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टिरहित होकर गीता सुने’- यह बात तुमने ध्यानपूर्वक सुनी कि नहीं? अर्थात तुमने श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टि रहित होकर गीता सुनी कि नहीं? ‘एकाग्रेण चेतसा’ कहने का तात्पर्य है कि गीता में भी जिस अत्यंत गोपनीय रहस्य को अभी पहले चौसठवें श्लोक में कहने की प्रतिज्ञा की, सड़सठवें श्लोक में ‘इदं ते नातपस्काय’ कहकर निषेध किया और मेरे वचनों में जिसको मैंने परम वचन कहा, उस सर्वगुह्यतम् शरणागति की बात[1] को तुमने ध्यानपूर्वक सुना कि नहीं? उस पर खयाल किया कि नहीं? ‘कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय’- भगवान दूसरा प्रश्न करते हैं कि तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ कि नहीं? अगर मोह नष्ट हो गया तो तुमने मेरा उपदेश सुन लिया और अगर मोह नष्ट नहीं हुआ तो तुमने मेरा यह रहस्य उपदेश एकाग्रता से सुना ही नहीं; क्योंकि यह एकदम पक्का नियम है कि जो दोषदृष्टि से रहित होकर श्रद्धापूर्वक गीता के उपदेश को सुनता है, उसका मोह नष्ट हो ही जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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