श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
उद्धार के योग्य समझकर ही भगवान ने मनुष्य – शरीर दिया है। इसलिए अपने स्वभाव का सुधार करके अपना उद्धार करने में प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र है, सबल है, योग्य है, समर्थ है। स्वभाव का सुधार करना असंभव तो है ही नहीं, कठिन भी नहीं है। मनुष्य को मुक्ति का द्वार कहा गया है- ‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा’।[1] यदि स्वभाव का सुधार करना असंभव होता तो इसे मुक्ति का द्वार कैसे कहा जा सकता है? अगर मनुष्य अपने स्वभाव का सुधार न कर सके, तो फिर मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या हुई?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 7।43।4
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