श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
ऐसी पूजा करके अंत समय में शर-शय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म अपने बाणों द्वारा पूजित भगवान का ध्यान करते हैं- ‘युद्ध में मेरे तीखे बाणों से जिनका कवच टूट गया है, जिसके त्वचा विच्छिन्न हो गयी है, परिश्रम के कारण जिनके मुख पर स्वदेकण सुशोभित हो रहे हैं, घोड़ों की टापों से उड़ी हुई रज जिनकी सुंदर अलकावलि में लगी हुई है, इस प्रकार बाणों से अलंकृत भगवान कृष्ण में मेरे मन-बुद्धि लग जाएँ[1]’ लौकिक और पारमार्थिक कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, पर उन कर्मों में और उनको करने के करणों-उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिए। कारण कि जिन वस्तुओं, क्रियाओं आदि में ममता हो जाती है, वे सभी चीजें अपवित्र हो जाने से[2] पूजा सामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल, फूल आदि भगवान पर नहीं चढ़ते)। इसलिए ‘मेरे पास जो कुछ है, वह सब उस सर्वव्यापक परमात्मा का ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है’- इस भाव से जो कुछ किया जाए, वह सब का सब परमात्मा का पूजन हो जाता है। इसके विपरीत उन क्रियाओं, वस्तुओं आदि को मनुष्य जितनी अपनी मान लेता है, उतनी ही वे (अपनी मानी हुई) क्रियाएँ, वस्तुएँ (अपवित्र होने से) परमात्मा के पूजन से वंचित रह जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ युधि तुरगरजोविधूम्रविष्ठवक्कचलुलितश्रमवार्यलंकृतास्ये। मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ।।
- ↑ ‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस 7।117 क)
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