श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । अर्थ- खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार- ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। व्याख्या- ‘कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्’- खेती करना, गायों की रक्षा करना, उनकी वंश-वृद्धि करना और शुद्ध व्यापार करना- ये कर्म वैश्य में स्वाभाविक होते हैं। शुद्ध व्यापार करने का तात्पर्य है- जिस देश में, जिस समय, जिस वस्तु की आवश्यकता हो, लोगों के हित की भावना से उस वस्तु को (जहाँ वह मिलती हो, वहाँ से ला करके) उसी देश में पहुँचाना; प्रजा की आवश्यक वस्तुओं के अभाव की पूर्ति कैसे हो, वस्तुओं के अभाव में कोई कष्ट न पाये- इस भाव से सच्चाई के साथ वस्तुओं का वितरण करना। भगवान श्रीकृष्ण (नन्दबाबा को लेकर) अपने को वैश्य ही मानते हैं।[1] इसलिए उन्होंने स्वयं गायों और बछड़ों को चराया। मनु महाराज ने वैश्य-वृत्ति में ‘पशूनां रक्षणम्’[2] (पशुओं की रक्षा करना) कहा है, पर यहाँ भगवान (उपर्युक्त पदों से) अपने जाति-भाईयों से मानो यह कहते हैं कि तुम लोग सब पशुओं का पालन, उनकी रक्षा न कर सको तो कम से कम गायों का पालन और उनकी रक्षा जरूर करना। गायों की वृद्धि न कर सको तो कोई बात नहीं; परंतु उनकी रक्षा जरूर करना, जिससे हमारा गोधन घट न जाए। इसलिए वैश्य-समाज को चाहिए कि वह गायों की रक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दे, उनकी रक्षा करने में अपनी शक्ति बचाकर न रखे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृषि वाणिज्यगोरक्ष कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ।। (श्रीमद्भा. 10।24।21)
वैश्यों की वार्तावृत्ति चार प्रकार की है- कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हमलोग उन चारों से केवल गोपालन ही सदा से करते आए हैं। - ↑ मनुस्मृति 1।90
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