श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च । अर्थ- हे पार्थ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किये रहता है, वह धारणशक्ति तामसी है। व्याख्या- ‘यया स्वप्नं भयं....... सा पार्थ तासमी’- तामसी धारण-शक्ति के द्वारा मनुष्य ज्यादा निद्रा, बाहर और भीतर का भय, चिन्ता, दुःख और घमंड- इनका त्याग नहीं करता, प्रत्युत इन सबमें रचा-पचा रहता है। वह कभी ज्यादा नींद में पड़ा रहता है, कभी मृत्यु, बीमारी, अपयश, अपमान, स्वास्थ्य, धन आदि के भय से भयभीत होता रहता है, कभी शोक-चिन्ता में डूबा रहता है, कभी दुःख में मग्न रहता है और कभी अनुकूल पदार्थों के मिलने से घमण्ड में चूर रहता है। निद्रा, भय, शोक आदि के सिवाय प्रमाद, अभिमान, दम्भ, द्वेष, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों को तथा हिंसा, दूसरों का अपकार करना, उनको कष्ट देना, उनके धन का किसी तरह से अपहरण करना आदि दुराचारों को भी ‘एव च’ पदों से मान लेना चाहिए। इस प्रकार निद्रा, भय आदि को दुर्गुण-दुराचारों को पकड़े रहने वाली अर्थात उनको न छोड़ने वाली धृति तामसी होती है। भगवान ने तैंतीसवें-चौंतीसवें श्लोक में ‘धारयते’ पद से सात्त्विक और राजस मनुष्य के द्वारा क्रमशः सात्त्विकी और राजसी धृति को धारण करने की बात कही है; परंतु यहाँ तामस मनुष्य के द्वारा तामसी धृति को धारण करने की बात नहीं कही। कारण यह है कि जिसकी बुद्धि बहुत ही दुष्टा है, जिसकी बुद्धि में अज्ञता, मूढ़ता भरी हुई है, ऐसा मलिन अंतःकरण वाला तामस मनुष्य निद्रा, भय, शोक आदि भावों को छोड़ता ही नहीं। वह उनमें स्वाभाविक ही रचा-पचा रहता है। सात्त्विकी, राजसी और तामसी- इन तीनों धृतियों के वर्णन में राजसी और तामसी धृति में तो क्रमशः ‘फलाकांक्षी’ और ‘दुर्मेधाः’ पद से कर्ता का उल्लेख किया है, पर सात्त्विकी धृति में कर्ता का उल्लेख किया ही नहीं। इसका कारण यह है कि सात्त्विकी धृति में कर्ता निर्लिप्त रहता है अर्थात उसमें कर्तृत्व का लेप नहीं होता; परंतु राजसी और तामसी धृति में कर्ता लिप्त होता है।
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