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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् । अर्थ- जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है। व्याख्या- ‘अनुबन्धम्’- जिसको फल की कामना होती है, वह मनुष्य तो फलप्राप्ति के लिए विचारपूर्वक कर्म करता है, परंतु तामस मनुष्य में मूढ़ता की प्रधानता होने से वह कर्म करने में विचार करता ही नहीं। इस कार्य को करने से मेरा तथा दूसरे प्राणियों का अभी और परिणाम में कितना नुकसान होगा, कितना अहित होगा- इस अनुबंध अर्थात परिणाम को न देखकर वह कार्य आरंभ कर देता है। ‘क्षयम्’- इस कार्य को करने से अपने और दूसरों के शरीरों की कितना हानि होगी; धन और समय का कितना खर्चा होगा; इससे दुनिया में मेरा कितना अपमान, निन्दा, तिरस्कार आदि होगा, मेरा लोक-परलोक बिगड़ जाएगा आदि नुकसान को न देखकर ही वह कार्य आरंभ कर देता है। ‘हिंसाम्’- इस कर्म से कितने जीवों की हत्या होगी; कितने श्रेष्ठ व्यक्तियों के सिद्धांतों और मान्यताओं की हत्या हो जाएगी; दूसरे मनुष्यों की मनुष्यता की कितनी भारी हिंसा हो जाएगी; अभी के और भावी जीवों के शुद्ध भाव आचरण, वेश-भूषा, खान-पान आदि की कितनी भारी हिंसा हो जाएगी; इससे मेरा और दुनिया का कितना अधःपतन होगा आदि हिंसा को न देखकर ही वह कार्य आरंभ कर देता है। ‘अनवेक्ष्य च पौरुषम्’- इस काम को करने की मेरे में कितनी योग्यता है, कितना बल, सामर्थ्य है; मेरे पास कितना समय है, कितनी बुद्धि है, कितनी कला है, कितना ज्ञान है आदि अपने पौरुष (पुरुषार्थ) को न देखकर ही वह कार्य आरंभ कर देता है। ‘मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते’- तामस मनुष्य कर्म करते समय उसके परिणाम, उससे होने वाले नुकसान, हिंसा और अपनी सामर्थ्य का कुछ भी विचार न करके, जब जैसा मन में भाव आया, उसी समय बिना विवेक-विचार के वैसा ही कर बैठता है। इस प्रकार किया गया कर्म ‘तामस’ कहलाता है। संबंध- अब भगवान सात्त्विक कर्ता के लक्षण बताते हैं।
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