श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘यथावत्’- गुणसंख्यान- शास्त्र में इस विषय का जैसा वर्णन हुआ है, वैसा का वैसा तुम्हें सुना रहा हूँ; अपनी तरफ से कुछ कम या अधिक करके नहीं सुना रहा हूँ। ‘श्रृणु’- इस विषय को ध्यान से सुनो। कारण कि सात्त्विक, राजस और तामस- इन तीनों में से ‘सात्त्विक’ चीजें तो कर्मों से संबंध-विच्छेद करके परमात्मतत्त्व का बोध कराने वाली है, ‘राजस’ चीजें जन्म-मरण देने वाली हैं; और ‘तामस’ चीजें पतन करने वाली अर्थात नरकों और नीच योनियों में ले जाने वाली हैं। इसलिए इनका वर्णन सुनकर सात्त्विक चीजों को ग्रहण तथा राजस-तामस चीजों का त्याग करना चाहिए। ‘तानि’- इन ज्ञान आदि का तुम्हारे स्वरूप के साथ कोई संबंध नहीं है। तुम्हारा स्वरूप तो सदा निर्लेप है। ‘अपि’- इनके भेदों को जानने की भी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि इनको ठीक तरह से जानने पर ‘यस्य नाहंकृतो भावो.....न हन्ति न निबध्यते’[2]- इस श्लोक का ठीक अनुभव हो जाएगा अर्थात अपने स्वरूप का बोध हो जाएगा। संबंध- अब भगवान सात्त्विक ज्ञान का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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