श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यदि पूर्वजन्म का बदला एक दूसरे ऐसे ही चुकाते रहें तो यह श्रृंखला कभी खत्म नहीं होगी और मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकेगा। पिछले जन्म का बदला अन्य (साँप आदि) योनियों में लिया जा सकता है। मनुष्ययोनि बदला लेने के लिए नहीं है। हाँ, यह हो सकता है कि पिछले जन्म का हत्यारा व्यक्ति हमें स्वाभाविक ही अच्छा नहीं लगेगा, बुरा लगेगा। परंतु बुरे लगने वाले व्यक्ति से द्वेष करना या उसे कष्ट देना दोष है; क्योंकि यह नया कर्म है।
जैसा प्रारब्ध है, उसी के अनुसार उसकी बुद्धि बन गयी, फिर दोष किस बात का? बुद्धि में जो द्वेष है, उसके वश में हो गया- यह दोष है। उसे चाहिए कि वह उसके वश में न होकर विवेक का आदर करे। गीता भी कहती है कि बुद्धि में जो राग-द्वेष रहते हैं[1], उनके वश में न हो- ‘तयोर्न वशमागच्छेत्’।[2]
(7) प्रारब्ध और भगवत्कृपा में अंतर क्या है?
इस जीव को जो कुछ मिलता है, वह प्रारब्ध के अनुसार मिलता है, पर प्रारब्ध-विधान के विधाता स्वयं भगवान हैं। कारण कि कर्म जड होने से स्वतंत्र फल नहीं दे सकते, वे तो भगवान के विधान से ही फल देते हैं। जैसे, एक आदमी किसी के खेत में दिनभर काम करता है तो उसको शाम के समय काम के अनुसार पैसे मिलते हैं, पर मिलते हैं खेत के मालिक से।
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