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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
कर्मयोगी (निष्कामभाव से) कर्म करते हुए भी फल के साथ संबंध नहीं रखता तो सांख्ययोगी कर्ममात्र के साथ किञ्चिंत भी संबंध नहीं रखता। कर्मयोगी फिल से संबंध-विच्छेद करता है अर्थात ममता का त्याग करता है तो सांख्ययोगी कर्तृत्वाभिमान अर्थात अहंता का त्याग करता है। ममता का त्याग होने पर अहंता का भी स्वतः त्याग हो जाता है और अहंता का त्याग होने पर ममता के त्याग के बाद अहंता का त्याग बताया है- ‘निर्ममो निरहंकारः’[1] और सांख्ययोग में अहंता के त्याग के बाद ममता का त्याग बताया है- ‘अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्। विमुच्य निर्ममः.....’।[2] इन दोनों की इस त्याग करने की प्रकृति का कार्य- इनमें से किसी के भी साथ इन दोनों का संबंध नहीं रहता अर्थात तत्त्व में कर्मयोगी और सांख्ययोगी- दोनों एक हो जाते हैं। पहले अर्जुन ने यह पूछा था कि मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व जानना चाहता हूँ; अतः भगवान ने यहाँ ‘संन्यासिनाम्’ पद से दोनों का यह तत्त्व बताया कि कर्मयोगी का यह भाव रहता है कि अपना कुछ नहीं है, अपने लिए कुछ नहीं चाहिए और अपने लिए कुछ नहीं करना है। ऐसे ही सांख्ययोगी का यह भाव रहता है कि अपना कुछ नहीं है और अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। सांख्ययोगी प्रकृति और प्रकृति के कार्य के साथ किञ्चिन्मात्र भी अपना संबंध नहीं मानता, इसलिए उसके लिए ‘अपने लिए कुछ नहीं करना है’- यह कहना ही नहीं बनता। यहाँ ‘त्यागिनाम्’ पद न देकर ‘संन्यासिनाम्’ पद देने का यह तात्पर्य है कि जो निर्लिप्तता सांख्ययोग से होती है, वही निर्लिप्तता त्याग से अर्थात कर्मयोग से भी होती है[3] दूसरी बात, यहाँ तक भगवान ने कर्मयोग से निर्लिप्तता बतायी, अब ‘संन्यासिनाम’ पद कहकर आगे सांख्ययोग से निर्लिप्तता बताने का बीज भी डाल देते हैं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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