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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
व्याख्या- ‘कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन’- यहाँ ‘कार्यम्’ पद के साथ ‘इति’ और ‘एव’ ये दो अव्यय लगाने से यह अर्थ निकलता है कि केवल कर्तव्यमात्र करना है। इसको करने में कोई फलासक्ति नहीं है, कोई स्वार्थ नहीं और कोई क्रियाजन्य सुखभोग भी नहीं। इस प्रकार कर्तव्य मात्र करने से कर्ता का उस कर्म से संबंध-विच्छेद हो जाता है। ऐसा होने से वह कर्म बंधनकारक नहीं होता अर्थात संसार के साथ संबंध नहीं जुड़ता। कर्म तथा उसके फल में आसक्त होने से ही बंधन होता है- ‘फले सक्तो निबध्यते’।[1] शास्त्रविहित कर्मों में भी देश, काल, वर्ण, आश्रम, परिस्थिति के अनुसार जिस-जिस कर्म में जिस-जिसकी नियुक्ति की जाती है, वे सब नियत कर्म कहलाते हैं; जैसे- साधु को ऐसा करना चाहिए, गृहस्थ को ऐसा करना चाहिए, ब्राह्मण को अमुक काम करना चाहिए, क्षत्रिय को अमुक काम करना चाहिए इत्यादि। उन कर्मों को प्रमाद, आलस्य, उपेक्षा, उदासीनता आदि दोषों से रहित होकर तत्परता और उत्साह पूर्वक करना चाहिए। इसीलिए भगवान ने कर्मयोग के प्रसंग में जगह-जगह ‘समाचर’ शब्द दिया है।[2] ‘संग त्यक्त्वा फलं चैव’- संग के त्याग का तात्पर्य है कि कर्म, कर्म करने के औजार (साधन) आदि में आसक्ति, प्रियता, ममता आदि न हो और फल के त्याग का तात्पर्य है कि कर्म के परिणाम के साथ संबंध न हो अर्थात फल की इच्छा न हो। इन दोनों का तात्पर्य है कि कर्म और फल में आसक्ति तथा इच्छा का त्याग हो। ‘स त्यागः सात्त्विको मतः’[3]- कर्म और फल में आसक्ति तथा कामना का त्याग करके कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करने से वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। राजस त्याग में कायक्लेश के भय से और तामस त्याग में मोहपूर्वक कर्मों का स्वरूप से त्याग किया जाता है; परंतु सात्त्विक त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं किया जाता, प्रत्युत कर्मों को सावधानी एवं तत्परता से, विधिपूर्वक, निष्कामभाव से किया जाता है। सात्त्विक त्याग से कर्म और कर्मफल रूप शरीर संसार से संबंध-विच्छेद हो जाता है। राजस और तामस त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग करने से केवल बाहर से कर्मों से संबंध-विच्छेद दीखता है; परंतु वास्तव में (भीतर से) संबंध-विच्छेद नहीं होता। इसका कारण यह है कि शरीर के कष्ट के भय से कर्मों का त्याग करने से कर्म तो छूट जाते हैं, पर अपने सुख और आराम के साथ संबंध जुड़ा ही रहता है। ऐसे ही मोहपूर्वक कर्मों का त्याग करने से कर्म तो छूट जाते हैं, पर मोह के साथ संबंध जुड़ा रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मों का स्वरूप से त्याग करने पर बंधन होता है और कर्मों को तत्परता से विधिपूर्वक करने पर मुक्ति (संबंध-विच्छेद) होती है। संबंध- छठे श्लोक में ‘एतानि’ और ‘अपि तु’ पदों से कहे गए यज्ञ, दान, तप आदि शास्त्रविहित कर्मों के करने में और शास्त्रनिषिद्ध तथा काम्य कर्मों का त्याग करने में क्या भाव होना चाहिए? यह आगे के श्लोक में बताते हैं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 5:12
- ↑ गीता 3।9,19
- ↑ गीताभर में जहाँ कहीं (7।12; 14।5-18, 22; 17।1, 2, 8-10, 11-13, 17-22 और 18।20-28, 30-35, 37-39 में) गुणों का वर्णन हुआ है, वहाँ सत्त्व, रज और तम- यही क्रम रखा गया है। केवल यहीं (18।7-9 में) व्यतिक्रम हुआ है अर्थात तम, रज और सत्त्व- ऐसा क्रम रखा गया है। इसका कारण है- (1) यदि छठे श्लोक के बाद ही (सातवें श्लोक में) सात्त्विक त्याग का वर्णन करते तो भगवान के निश्चित मत में और सात्त्विक त्याग में पुनरुक्ति का दोष आ जाता। (2) किसी वस्तु की उत्तमता तभी सिद्ध होती है, जब उसके पहले अनुत्तम वस्तु का वर्णन किया जाए। इसलिए भगवान सात्त्विक त्याग की उत्तमता सिद्ध करने के लिए पहले अनुत्तम तामस और राजस त्याग का वर्णन करते हैं। (3) आगे दसवें से बारहवें श्लोक तक ‘सात्त्विक त्यागी’ का वर्णन हुआ है। यदि सात्त्विक त्याग का वर्णन सात्त्विक त्यागी के पास (नवें श्लोक में) न देते तो तामस त्याग के पास होने से सात्त्विक त्यागी का संबंध न जुड़ता।
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