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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
श्री भगवानुवाच अर्थ- कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मों के त्याग को सन्न्यास समझते हैं तथा दूसरे विचार कुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्मपात्र दोष युक्त हैं, इसलिये त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है। व्याख्या- दार्शनिक विद्वानों के चार मत हैं- 1. ‘काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः’- कई विद्वान कहते हैं कि काम्य-कर्मों के त्याग का नाम ‘संन्यास’ है अर्थात इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति के लिए जो कर्म किए जाते हैं, उनका त्याग करने का नाम ‘संन्यास’ है। 2. ‘सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः’- कई विद्वान कहते हैं कि संपूर्ण कर्मों के फल की इच्छा का त्याग करने का नाम ‘त्याग’ है अर्थात फल न चाहकर कर्तव्य-कर्मों को करते रहने का नाम ‘त्याग’ है। 3. ‘त्याज्यं दोष[1] वदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः’- कई विद्वान कहते हैं कि संपूर्ण कर्मों को दोष की तरह छोड़ देना चाहिए। 4. ‘यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे’- अन्य विद्वान कहते हैं कि दूसरे सब कर्मों का भले ही त्याग कर दें, पर यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। उपर्युक्त चारों मतों में दो विभाग दिखाई देते हैं- पहला और तीसरा मत ‘संन्यास’ (सांख्ययोग) का है तथा दूसरा और चौथा मत ‘त्याग’ (कर्मयोग) का है। इन दो विभागों में भी थोड़ा-थोड़ा अंतर है। पहले मत में केवल काम्य-कर्मों का त्याग है और तीसरे मत में कर्ममात्र का त्याग है। ऐसे ही दूसरे मत में कर्मों के फल का त्याग है और चौथे मत में यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग का निषेध है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘दोषवत्’ पद व्याकरण के प्रति ‘वति’ और ‘मतुप्’ दोनों प्रत्ययों से बनता है; परंतु दोनों का अर्थ दो तरह का होता है। ‘वति’ प्रत्यय करने से ‘दोषवत्’ पद का अर्थ होता है- कर्मों को दोष की तरह छोड़ देना चाहिए और ‘मतुप्’ प्रत्यय करने से ‘दोषवत्’ पद का अर्थ होता है- दोष वाले कर्म छोड़ देने चाहिए। परंतु यहाँ ‘वति’ प्रत्यय का ही अर्थ लेना चाहिए, ‘मतुप्’ प्रत्यय का नहीं; क्योंकि ‘मतुप्’ प्रत्यय का अर्थ भगवान् के मत के अनुसार है (गीता 18:48), दार्शनिकों के मत के अनुसार नहीं। दूसरा अंतर यह है कि ‘वति’ प्रत्यय अव्यय बनकर क्रिया का विशेषण होता है और ‘मतुप्’ प्रत्यय कर्ता और कर्म का विशेषण बनता है।
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