श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘असत्कृतमवज्ञातम्’- तामस दान असत्कार और अवज्ञापूर्वक दिया जाता है; जैसे- तासम मनुष्य के पास कभी दान लेने के लिए ब्राह्मण आ जाए, तो वह तिरस्कारपूर्वक उसको उलाहना देगा कि देखो पंडित जी! जब हमारी माता का शरीर शांत हुआ, तब भी आप नहीं आए; परंतु क्या करें; आप हमारे घर के गुरु हो इसलिए हमें देना ही पड़ता है। इतने में ही घर का दूसरा आदमी बोल पड़ता है कि तुम क्यों ब्राह्मणों के झंझट में पड़ते हो? किसी गरीब को दे दो। जिसको कोई नहीं देता, उसको देना चाहिए। वास्तव में वही दान है। ब्राह्मण को तो और कोई भी दे देगा, पर बेचारे गरीब को कौन देगा? पंडित जी क्या आ गया, यह तो कुत्ता आ गया; टुकड़ा डाल दो, नहीं तो भौंकेगा आदि-आदि। इस प्रकार शास्त्रविधि का, ब्राह्मणों का तिरस्कार करने के कारण यह दान तामस कहलाता है। ‘अदेशकाले यद्दानम्’- मूढ़ता के कारण तामस मनुष्य को अपने मन की बातें ही जँचती हैं; जैसे दान करने के लिए देश काल की क्या जरूरत है? जब चाहे, तब कर दिया। जब किसी विशेष देश और काल में ही पुण्य होगा, तो क्या यहाँ पुण्य नहीं होगा? इसके लिए अमुक समय आयेगा, अमुक पर्व आएगा- इसकी क्या आवश्यकता? अपनी चीज खर्च करनी है, चाहे कभी दो, आदि-आदि। इस प्रकार तामस मनुष्य शास्त्रविधि का अनादर, तिरस्कार करके दान करते हैं। कारण कि उनके हृदय में शास्त्रविधि का महत्त्व नहीं होता, प्रत्युत रुपयों का महत्त्व होता है। ‘अपात्रेभ्यश्च दीयते’- तामस दान अपात्र को किया जाता है। तामस मनुष्य कई प्रकार के तर्क-वितर्क करके पात्र का विचार नहीं करते; जैसे- शास्त्रों में देश, काल और पात्र की बातें यों ही लिखी गयी है; कोई यहाँ दान लेगा तो क्या यहाँ उसका पेट नहीं भरेगा? तृप्ति नहीं होगी? जब पात्र को देने से पुण्य होता है, तो इनको देने से क्या पुण्य नहीं होगा? क्या ये आदमी नहीं है? क्या इनको देने से पाप लगेगा? अपनी जीविका चलाने के लिए, अपना मतलब सिद्ध करने के लिए ही ब्राह्मणों ने शास्त्रों में ऐसा लिख दिया है, आदि-आदि। |
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