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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘मूढग्राहेणात्मनो यत्पीड्या क्रियते तपः’- तामस तप में मूढ़ता पूर्वक आग्रह होने से अपने-आपको पीड़ा देकर तप किया जाता है। तामस मनुष्यों में मूढ़ता की प्रधानता रहती है; अतः जिसमें शरीर को, मन को कष्ट हो, उसी को वे तप मानते हैं। ‘परस्योत्सादनार्थ वा’- अथवा वे दूसरों को दुःख देने के लिए तप करते हैं। उनका भाव रहता है कि शक्ति प्राप्त करने के लिए तप (संयम आदि) करने में मुझे भले ही कष्ट सहना पड़े, पर दूसरों को नष्ट-भ्रष्ट तो करना ही है। तामस मनुष्य दूसरों को दुःख देने के लिए उन तीन (कायिक, वाचिक और मानसिक) तपों के आंशिक भाग के सिवाय मनमाने ढंग से उपवास करना, शीत-घाम को सहना आदि तप भी कर सकता है। ‘तात्तामसमुदाहृतम्’- तामस मनुष्य का उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट देन का, उनका अनिष्ट करने का रहता है। अतः ऐसे उद्देश्य से किया गया तप तामस कहलाता है। संबंध- अब भगवान आगे के तीन श्लोकों में क्रमशः सात्त्विक, राजस और तामस दान के लक्षण बताते हैं। |
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