श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
भोजन करते समय ग्रास-ग्रास में भगन्नाम-जप करते रहने से अन्नदोष भी दूर हो जाता है।[1] जो लोग ईर्ष्या, भय और क्रोध से युक्त हैं तथा लोभी हैं, और रोग तथा दीनता से पीड़ित और द्वेषयुक्त हैं, वे जिस भोजन को करते हैं, वह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात उससे अजीर्ण हो जाता है।[2] इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह भोजन करते समय मन को शांत तथा प्रसन्न रखे। मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों की वृत्तियों न आने दे। यदि कभी आ भी जाए तो उस समय भोजन न करे; क्योंकि वृत्तियों का असर भोजन पर पड़ता है और उसी के अनुसार अंतःकरण बनता है। ऐसा भी सुनने में आया है कि फौजी लोग जब गाय को दुहते हैं, तब दुहने से पहले बछड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़े के पीछे कुत्ता छोड़ते हैं। अपने बछड़े के पीछे कुत्ते को देखकर जब गाय गुस्से में आ जाती है, तब बछड़े को लाकर बाँध देते हैं और फिर गाय को दुहते हैं। वह दूध फौजियों को पिलाते हैं, जिससे वे लोग खूंखार बनते हैं। ऐसे ही दूध का भी असर प्राणियों पर पड़ता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कवले कवले कुर्वन् ग्रमनामानुकीर्तनम्। यः कश्चित् पुरुषोऽश्राति सोऽन्नदोषैर्न लिप्यते ।।
- ↑ ईर्ष्याभयक्रोधसमन्वितेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन। विद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक् परिपाकमेति।। (भावप्रकाश-दिनचर्याप्रकरण 5।228)
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