श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘भोजनं तामसप्रियम्’- ऐसा भोजन तामस मनुष्य को प्रिय लगता है। इससे उसकी निष्ठा की पहचान हो जाती है। उपर्युक्त भोजनों में से सात्त्विक भोजन भी अगर रागपूर्वक खाया जाए, तो वह राजस हो जाता है और लोलुपतावश अधिक खाया जाए, (जिससे अजीर्ण आदि हो जाए) तो वह तामस हो जाता है। ऐसे ही भिक्षुक को विधि से प्राप्त भिक्षा आदि में रूखा, सूखा, तीखा और बासी भोजन प्राप्त हो जाए, जो कि राजस-तामस है, पर वह उसको भगवान के भोग लगाकर भगवन्नाम लेते हुए स्वल्पमात्रा में[1] खाये, तो वह भोजन भी भाव और त्याग की दृष्टि से सात्त्विक हो जाता है। चार श्लोकों के इस प्रकार में तीन तरह के- सात्त्विक राजस और तामस आहार का वर्णन दीखता है; परन्तु वास्तव में यहाँ आहार का प्रसंग नहीं है, प्रत्युत ‘आहारी’ की रुचि का प्रसंग है। इसलिए यहाँ ‘आहारी’ की रुचि का ही वर्णन हुआ है- इसमें निम्नलिखित युक्तियाँ दी जा सकती हैं- 1.सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में आये ‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः’ पदों को लेकर अर्जुन ने प्रश्न किया कि मनमाने ढंग से श्रद्धापूर्वक काम करने वालों की निष्ठा की पहचान कैसे हो? तो भगवान ने इस अध्याय के दूसरे श्लोक में श्रद्धा के तीन भेद बताकर तीसरे श्लोक में ‘सर्वस्य’ पद से मनुष्यमात्र की अंतःकरण के अनुरूप श्रद्धा बतायी, और चौथे श्लोक में पूज्य के अनुसार पूजक की निष्ठा की पहचान बतायी। सातवें श्लोक में उसी ‘सर्वस्य’ पद का प्रयोग करके भगवान यह बताते हैं कि मनुष्यमात्र को अपनी-अपनी रुचि के अनुसार तीन तरह का भोजन प्रिय होता है- ‘आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।’ उस प्रियता से ही मनुष्य की निष्ठा (स्थिति) की पहचान हो जाएगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वल्पमात्रा में खाने का तात्पर्य यह है कि भोजन करने के बाद पेट याद न आए; क्योंकि पेट दो कारणों से याद आता है- अधिक खाने पर और बहुत कम खाने पर।
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