श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
श्रीभगवानुवाच
व्याख्या- अर्जुन ने निष्ठा को जानने के लिए प्रश्न किया था, पर भगवान उसका उत्तर श्रद्धा को लेकर देते हैं; क्योंकि श्रद्धा के अनुसार ही निष्ठा होती है। ‘त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा’- श्रद्धा तीन तरह की होती है। वह श्रद्धा कौन सी है? संगजा है, शास्त्रजा है या स्वभावजा है? तो कहते हैं कि वह स्वभावजा है- ‘सा स्वभावजा’ अर्थात स्वभाव से पैदा हुई स्वतः सिद्ध श्रद्धा है। वह न तो संग से पैदा हुई है और न शास्त्रों से पैदा हुई है। वे स्वाभाविक इस प्रवाह में बह रहे हैं और देवता आदि का पूजन करते जा रहे हैं। ‘सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु’- वह स्वभावजा श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्त्विकी, राजसी और तामसी। उन तीनों को अलग-अलग सुनो। पीछे के श्लोक में ‘सत्त्वमाहो रजस्तमः’ पदों में ‘आहो’ अव्यय देने का तात्पर्य यह था कि अर्जुन की दृष्टि में ‘सत्त्वम्’ से दैवी संपत्ति और ‘रजस्तमः’ से आसुरी संपत्ति ये दो ही विभाग हैं और भगवान भी बंधन की दृष्टि से राजसी तामसी दोनों को आसुरी-संपत्ति ही मानते हैं- ‘निबंधायासुरीमता’।[1] परंतु बंधन की दृष्टि से राजसी और तामसी एक होते हुए भी दोनों के बंधन में भेद है। राजस मनुष्य सकामभाव से शास्त्रविहित कर्म भी करते हैं; अतः वे स्वर्गादि ऊँचे लोकों में जाकर और वहाँ के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं- ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति’।[2] परंतु तामस मनुष्य शास्त्रविहित कर्म नहीं करते; अतः वे कामना और मूढ़ता के कारण अधम गति में जाते हैं- ‘अधोगच्छन्ति तामसाः’।[3] इस प्रकार राजस और तामस- दोनों ही मनुष्यों का बंधन बना रहता है। दोनों के बंधन में भेद की दृष्टि से ही भगवान आसुरी संपदा वालों की श्रद्धा के राजसी और तामसी- दो भेद करते हैं और सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी- तीनों श्रद्धाओं को अलग-अलग सुनने के लिए कहते हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में वर्णित स्वभावजा श्रद्धा के तीन भेद क्यों होते हैं- इसे भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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