श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु’- जिनका नाम लेना, दर्शन करना, स्मरण करना आदि भी महान् अपवित्र करने वाला है- ‘अशुभान्’, ऐसे क्रूर, निर्दयी, सबके वैरी मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार ही भगवान उनको आसुरी योनि देते हैं। भगवान कहते हैं- ‘आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि’ अर्थात मैं उनको उनके स्वभाव के लायक ही कुत्ता, साँप, बिच्छू, बाघ, सिंह आदि आसुरी योनियों में गिराता हूँ। वह भी एक-दो बार नहीं, प्रत्युत बार-बार गिराता हूँ- ‘अजस्रम्’, जिससे वे अपने कर्मों का फल भोगकर शुद्ध, निर्मल होते रहें। भगवान् का उनको आसुरी योनियों में गिराने का तात्पर्य क्या है? भगवान का उन क्रूर, निर्दयी मनुष्यों पर भी अपनापन है। भगवान उनको पराया नहीं समझते, अपना द्वेषी-वैरी नहीं समझते, प्रत्युत अपना ही समझते हैं। जैसे, जो भक्त जिस प्रकार भगवान की शरण लेते हैं, भगवान भी उनको उसी प्रकार आश्रय देते हैं।[1] ऐसे ही जो भगवान के साथ द्वेष करते हैं, उनके साथ भगवान द्वेष नहीं करते, प्रत्युत उनको अपना ही समझते हैं। दूसरे साधारण मनुष्य जिस मनुष्य से अपनापन करते हैं, उस मनुष्य को ज्यादा सुख-आराम देकर उसको लौकिक सुख में फँसा देते हैं; परंतु भगवान जिनसे अपनापन करते हैं उनको शुद्ध बनाने के लिए वे प्रतिकूल परिस्थिति भेजते हैं, जिससे वे सदा के लिए सुखी हो जाएँ- उनका उद्धार हो जाए। जैसे, हितैषी अध्यापक विद्यार्थियों पर शासन करके, उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं, जिससे वे विद्वान बन जाएँ, उन्नत बन जाएँ, सुंदर बन जाएँ, ऐसे ही जो प्राणी परमात्मा को जानते नहीं, मानते नहीं और उनका खंडन करते हैं, उनको भी परम कृपालु भगवान जानते हैं, अपना मानते हैं और उनको आसुरी योनियों में गिराते हैं, जिससे उनके किए हुए पाप दूर हो जाएँ और वे शुद्ध, निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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