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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
- दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
- अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ।।4।।
- अर्थ- हे पृथानन्दन! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेक का होना भी- ये सभी आसुरी-संपदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।
व्याख्या- ‘दम्भः’- मान, बड़ाई, पूजा, ख्याति आदि प्राप्त करने के लिए, अपनी वैसी स्थिति न होने पर भी वैसी स्थिति दिखाने का नाम ‘दम्भ’ है। यह दम्भ दो प्रकार से होता है-
- सद्गुण-सदाचारों को लेकर- अपने को धर्मात्मा, साधक, विद्वान, गुणवान आदि प्रकट करना अर्थात अपने में वैसा आचरण न होने पर भी अपने में श्रेष्ठ गुणों को लेकर वैसा आचरण दिखाना, थोड़ा होने पर भी ज्यादा दिखाना, भोगी होने पर भी अपने को योगी दिखाना आदि दिखावटी भावों और क्रियाओं का होना- यह सद्गुण-सदाचारों को लेकर ‘दम्भ’ है।
- दुर्गुण-दुराचारों को लेकर- जिसका आचरण, खान-पान स्वाभाविक अशुद्ध नहीं है, ऐसा व्यक्ति भी जिनके आचरण, खान-पान अशुद्ध हैं- ऐसे दुर्गुण-दुराचारी लोगों में जाकर उनको राजी करके अपनी इज्जत जमाने के लिए, मान-आदर प्राप्ति करने के लिए, अपने मन में बुरा लगने पर भी वैसा आचरण, खान-पान कर बैठता है- यह दुर्गुण-दुराचारों को लेकर ‘दम्भ’ है। तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य प्राण, शरीर, धन, संपत्ति, आदर, महिमा आदि को प्रधानता देने लगता है, तब उसमें दम्भ आ जाता है।
‘दर्पः’- घमंड का नाम ‘दर्प’ है। धन-वैभव, जमीन-जायदाद, मकान-परिवार आदि ममता वाली चीजों को लेकर अपने में जो बड़प्पन का अनुभव होता है, वह ‘दर्प’ है। जैसे- मेरे पास इतना धन है; मेरा इतना बड़ा परिवार है; मेरा इतना राज्य है; मेरे पास इतनी जमीन-जायदाद है; मेरे पीछे इतने आदमी हैं; मेरी आवाज के पीछे इतने आदमी बोलते हैं; मेरे पक्ष में बहुत आदमी हैं; धन-संपत्ति-वैभव में मेरी बराबरी कौन कर सकता है? मेरे पास ऐसे-ऐसे पद हैं, अधिकार हैं; संसार में मेरा कितना यश, प्रतिष्ठा हो रही है! मेरे बहुत अनुयायी हैं; मेरा संप्रदाय किता ऊँचा है! मेरे गुरु जी कितने प्रभावशाली हैं! आदि-आदि।
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