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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
तात्पर्य यह है कि अपने शरीर को शुद्ध रखने से शरीर की अपवित्रता का ज्ञान होता है। शरीर की अपवित्रता का ज्ञान होने से ‘संपूर्ण शरीर इसी तरह के हैं’- इसका बोध होता है। इस बोध से दूसरे शरीरों के प्रति जो आकर्षण होता है, उसका अभाव हो जाता है अर्थात दूसरे शरीर से सुख लेने की इच्छा मिट जाती है।
ब्रह्म शुद्धि चार प्रकार से होती है- (1) शारीरिक (2) वाचिक, (3) कौटुम्बिक और (4) आर्थिक।
- शारीरिक शुद्धि- प्रमाद, आलस्य, आराम-तलबी, स्वाद-शौकीनी आदि से शरीर अशुद्ध हो जाता है और इनके विपरीत कार्य-तत्परता, पुरुषार्थ, उद्योग, सादगी आदि रखते हुए आवश्यक कार्य करने पर शरीर शुद्ध हो जाता है। ऐसे ही जल, मृत्तिका आदि से भी शारीरिक शुद्धि होती है।
- वाचिक शुद्धि- झूठ बोलने, कडुआ बोलने, वृथा बकवाद करने, निंदा करने, जुगली करने आदि से वाणी अशुद्ध हो जाती है। इन दोषों से रहित होकर सत्य, प्रिय एवं हितकारक आवश्यक वचन बोलना (जिससे दूसरों की पारमार्थिक उन्नति होती हो और देश, ग्राम, मोहल्ले, परिवार, कुटुम्ब आदि का हित होता हो) और अनावश्यक बात न करना- यह वाणी की शुद्धि है।
- कौटुम्बिक शुद्धि- अपने बाल-बच्चों को अच्छी शिक्षा देना; जिससे उनका हित हो, वही आचरण करना; कुटुम्बियों का हम पर जो न्यायमुक्त अधिकार है, उसको अपनी शक्ति के अनुसार पूरा करना; कुटुम्बियों में किसी का पक्षपात न करके सबका समानरूप से हित करना- यह कौटुम्बिक शुद्धि है।
- आर्थिक शुद्धि- न्याययुक्त, सत्यतापूर्वक, दूसरों के हित का बर्ताव करते हुए जिस धन का उपार्जन किया गया है, उसको यथाशक्ति, अरक्षित, अभावग्रस्त, दरिद्री, रोगी, अकालपीड़ित, भूखे आदि आवश्यकता वालों को देने से एवं गौ, स्त्री, ब्राह्मणों की रक्षा में लगाने से द्रव्य की शुद्धि होती है।
परमात्मप्राप्ति का ही उद्देश्य हो जाने पर अपनी (स्वयं की) शुद्धि हो जाती है। स्वयं की शुद्धि होने पर शरीर, वाणी, कुटुम्ब, धन आदि सभी शुद्ध एवं पवित्र होने लगते हैं। शरीर आदि के शुद्ध हो जाने से वहाँ का स्थान, वायुमंडल आदि भी शुद्ध हो जाते हैं। बाह्यशुद्धि और पवित्रता का खयाल रखने से शरीर की वास्तविकता अनुभव में आ जाती है, जिससे शरीर से अहंता-ममता छोड़ने में सहायता मिलती है। इस प्रकार यह स्थान भी परमात्मप्राप्ति में निमित्त बनता है।
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