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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
(4) साधारण मनुष्यों की दया- साधारण मनुष्य की दया में थोड़ी मलिनता रहती है। वह किसी जीव के हित की चेष्टा करता है, तो यह सोचता है कि ‘मैं कितना दयालु हूँ! मैं इस जीव को सुख पहुँचाया, तो मैं कितना अच्छा हूँ! हरेक आदमी मेरे- जैसा दयालु नहीं है, कोई-कोई ही होता है, इत्यादि।’ इस प्रकार लोग मुझे अच्छा समझेंगे, मेरा आदर करेंगे आदि बातों को लेकर, अपने में महत्त्वबुद्धि रखकर जो दया की जाती है, उसमें दया का अंश तो अच्छा है, पर साथ में उपर्युक्त मलिनताएँ रहने से उस दया में अशुद्धि आ जाती है। इनसे भी साधारण दर्जे के मनुष्य दया तो करते हैं, पर उनकी दया ममता वाले व्यक्तियों पर ही होती है। जैसे, ये हमारे परिवार के हैं, हमारे मत और सिद्धांत को मानने वाले हैं, तो उनका दुःख दूर करने की इच्छा से उन्हें सुख-आराम देने का प्रयत्न करते हैं। यह दया ममता और पक्षपातयुक्त होने से अधिक अशुद्ध है।
इनसे भी घटिया दर्जे के वे मनुष्य हैं, जो केवल अपने सुख और स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही दूसरों के प्रति दया का बर्ताव करते हैं।
‘अलोलुप्त्वम्’- इंद्रियों का विषयों से संबंध होने से अथवा दूसरों को भोग भोगते हुए देखने से मन का (भोग भोगने के लिए) ललचा उठने का नाम ‘लोलुपता’ है और उसके सर्वथा अभाव का नाम ‘अलोलुप्त्व’ है।
अलोलुपता के उपाय-
- साधक के लिए विशेष सावधानी की बात है कि वह अपनी इंद्रियों से भोगों का संबंध न रखे और मन में कभी भी ऐसा भाव, ऐसा अभिमान न आने दे कि मेरा इंद्रियों पर अधिकार है अर्थात इंद्रियाँ मेरे वश में हैं; अतः मेरा क्या बिगाड़ सकता है?
- ‘मैं हृदय से परमात्मा की प्राप्ति चाहता हूँ, अगर कभी हृदय में विषय-लोलुपता हो गयी, तो मेरा पतन हो जाएगा और मैं परमात्मा से विमुख हो जाऊँगा’- इस प्रकार साधक खूब सावधान रहे और कहीं अचानक विचलित होने का अवसर आ जाए, तो ‘हे नाथ! बचाओ; हे नाथ! बचाओ’ ऐसे सच्चे हृदय से भगवान को पुकारे।
- स्त्री-पुरुषों की तथा जन्तुओं की कामविषयक चेष्टा न देखे। यदि दीख जाए, तो ऐसा विचार करे कि ‘यह तो बिलकुल चौरासी लाख योनियों का रास्ता है। यह चीज तो मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, राक्षस-असुर, भूत-प्रेत आदि मात्र जीवों में भी है। पर मैं तो चौरासी लाख योनियों अर्थात जन्म-मरण से ऊँचा उठना चाहता हूँ।
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