श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
‘यज्ञः’- ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ आहुति देना होता है। अतः अपने वर्णाश्रम के अनुसार होम, बलिवैश्वदेव आदि करना ‘यज्ञ’ है। इसके सिवाय गीता की दृष्टि से अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदि के अनुसार जिस-किसी समय जो कर्तव्य प्राप्त हो जाए, उसको स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके दूसरों के हित की भावना से या भगवत्प्रीत्यर्थ करना ‘यज्ञ’ है। इसके अतिरिक्त जीविका-संबंधी व्यापार, खेती आदि तथा शरीर-निर्वाह संबंध खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना, देना-लेना आदि सभी क्रियाएँ भगवत्प्रीत्यर्थ करना ‘यज्ञ’ है। ऐसे ही माता-पिता, आचार्य, गुरुजन आदि की आज्ञा का पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको मन, वाणी, तन और धन से सुख पहुँचाकर उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना और गौ, ब्राह्मण, देवता, परमात्मा आदि का पूजन करना, सत्कार करना- ये सभी ‘यज्ञ’ हैं। ‘स्वाध्यायः’- अपने ध्येय की सिद्धि के लिए भगवन्नाम का जप और गीता, भागवत, रामायण, महाभारत आदि के पठन-पाठन का नाम ‘स्वाध्याय’ है। वास्तव में तो ‘स्वस्य अध्यायः (अध्ययनम्) स्वाध्यायः’ के अनुसार अपनी वृत्तियों का, अपनी स्थिति का ठीक तरह से अध्ययन करना ही ‘स्वाध्याय’ है। इसमें भी साधक को न तो अपनी वृत्तियों से अपनी स्थिति की कसौटी लगानी है और न वृत्तियों के अधीन अपनी स्थिति ही माननी है। कारण कि वृत्तियाँ तो हरदम आती-जाती रहती हैं, बदलती रहती हैं। तो फिर स्वाभाविक यह प्रश्न उठता है कि क्या हम अपनी वृत्तियों को शुद्ध न करें? वास्तव में तो साधक का कर्तव्य वृत्तियों को शुद्ध न करें? वास्तव में तो साधक का कर्तव्य वृत्तियों को शुद्ध करने का ही होना चाहिए और वह शुद्धि अंतःकरण तथा उसकी वृत्तियों को अपना न मानने से बहुत जल्दी हो जाती है; क्योंकि उनको अपना मानना ही मूल अशुद्धि है। साक्षात परमात्मा का अंश होने से अपना स्वरूप कभी अशुद्ध हुआ ही नहीं। केवल वृत्तियों के अशुद्ध होने से ही उसका यथार्थ अनुभव नहीं होता। ‘तपः’- भूख-प्यास, सरदी-गरमी, वर्षा आदि सहना भी एक तप है, पर इस तप में भूख-प्यास आदि को जानकर सहते हैं। वास्तव में साधन करते हुए अथवा जीवन-निर्वाह करते हुए देश, काल, परिस्थिति आदि को लेकर जो कष्ट, आफत, विघ्न आदि आते हैं, उनको प्रसन्नतापूर्वक सहना ही ‘तप’ है;[1] क्योंकि इस तप में पहले किए गए पापों का नाश होता है और सहने वाले में सहने की एक नयी शक्ति, एक नया बल आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आगते स्वागतं कुर्याद् गच्छन्तं न निवारयेत्। यथाप्राप्तं सहेत्सर्व सा तपस्योत्तमोत्तमा ।। (बोधसार)
‘प्रारब्धवश परिस्थिति रूप से जो कुछ आ जाए, उसका स्वागत करे, जाने वाले को रोके नहीं और जो जैसे प्राप्त हो, से वैसे ही सहन करे, यही उत्तम से उत्तम तप है।’
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