श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
भगवान को जानने वाला व्यक्ति कितना ही कम पढ़ा-लिखा क्यों न हो, वह सब कुछ जानने वाला है; क्योंकि उस न जानने योग्य तत्त्व को जान लिया। उसको और कुछ भी जानना शेष नहीं है। जो मनुष्य भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जान लेता है, उस ‘सर्ववित्’ मनुष्य की पहचान यह है कि वह सब प्रकार से स्वतः भगवान का ही भजन करता है। जब मनुष्य भगवान को ‘क्षर से अतीत’ जान लेता है, तब उसका मन (राग) क्षर (संसार) से हटकर भगवान में लग जाता है और जब वह भगवान को ‘अक्षर से उत्तम’ जान लेता है, तब उसकी बुद्धि (श्रद्धा) भगवान में लग जाती है।[1] फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान का भजन होता है। इस प्रकार प्रकार से भगवान का भजन करना ही ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’ है। शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सांसारिक पदार्थों से जब तक मनुष्य रागपूर्वक अपना संबंध मानता है, तब तक वह सब प्रकार से भगवान का भजन नहीं कर सकता। कारण कि जहाँ राग होता है, वृत्ति स्वतः वहीं जाती है। ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान ही मेरे हैं’- इस वास्तविकता को दृढ़तापूर्वक मान लेने से स्वतः सब प्रकार से भगवान का भजन होता है। फिर भक्त की मात्र क्रियाएँ (सोना, जागना, बोलना, चलना, खाना-पीना आदि) भगवान की प्रसन्नता के लिए ही होती है, अपने लिए नहीं। ज्ञानमार्ग में ‘जानना’ और भक्तिमार्ग में ‘मानना’ मुख्य होता है। जिस बात में किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो, उसे दृढ़तापूर्वक ‘मानना’ ही भक्तिमार्ग में ‘जानना’ है। भगवान को सर्वोपरि मान लेने के बाद भक्त सब प्रकार से भगवान का ही भजन करता है।[2] भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ (सर्वोपरि) मानने से भी मनुष्य ‘सर्ववित्’ हो जाता है, फिर सब प्रकार से भगवान का भजन करते हुए भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जान जाय- इसमें तो कहना ही क्या है! संबंध- ‘अरुन्धती-दर्शन-न्याय’- (स्थूल से क्रमशः सूक्ष्म की ओर जाने) के अनुसार भगवान ने इस अध्याय में पहले ‘क्षर’ और फिर ‘अक्षर’ का विवेचन करने के बाद अंत में ‘पुरुषोत्तम’ का वर्णन किया- अपने पुरुषोत्तमत्व को सिद्ध किया। ऐसा वर्णन करने का तात्पर्य और प्रयोजन क्या है- इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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