श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
यद्यपि इंद्रिय और बुद्धि-जन्य ज्ञान भी ‘ज्ञान’ कहलाता है, तथापि सीमित, अल्प (अपूर्ण) तथा परिवर्तनशील होने के कारण इस ज्ञान में संदेह या भ्रम रहता है; जैसे- नेत्रों से देखने पर सूर्य अत्यंत बड़ा होते हुए भी (आकाश में) छोटा सा दीखता है इत्यादि। बुद्धि से जिस बात को पहले ठीक समझते थे, बुद्धि के विकसित अथवा शुद्ध होने पर वही बात गलत दीखने लग जाती है। तात्पर्य यह है कि इंद्रिय और बुद्धि-जन्य ज्ञान करण-सापेक्ष और अल्प होता है। अल्प ज्ञान ही ‘अज्ञान’ कहलाता है। इसके विपरीत ‘स्वयं’ का ज्ञान किसी कारण (इंद्रिय, बुद्धि आदि) की अपेक्षा नहीं रखता और वह सदा पूर्ण होती है। वास्तव में इंद्रिय और बुद्धि-जन्य ज्ञान भी ‘स्वयं’ के ज्ञान से प्रकाशित होते हैं अर्थात सत्ता पाते हैं। संशय, भ्रम, विपर्यय (विपरीत भाव), तर्क-वितर्क आदि दोषों के दूर होने का नाम ‘अपोहन’ है। भगवान कहते हैं कि ये (संशय आदि) दोष भी मेरी कृपा से ही दूर होते हैं। शास्त्रों की बातें सत्य हैं या असत्य? भगवान को किसने देखा है? संसार ही सत्य है इत्यादि संशय और भ्रम भगवान की कृपा से ही मिटते हैं। सांसारिक पदार्थों में अपना हित दीखना, उनकी प्राप्ति में सुख दीखना, प्रतिक्षण नष्ट होने वाला संसार की सत्ता दीखना आदि विपरीत भाव भी भगवान की कृपा से ही दूर होते हैं। गीतोपदेश के अंत में अर्जुन भी भगवान की कृपा से ही अपने मोह का नाश, स्मृति की प्राप्ति और संशय का नाश होना स्वीकार करते हैं।[1] ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’- यहाँ ‘सर्वैः’ पद वेद एवं वेदानुकूल संपूर्ण शास्त्रों का वाचक है। संपूर्ण शास्त्रों का एकमात्र तात्पर्य परमात्मा का वास्तविक ज्ञान कराने अथवा उनकी प्राप्ति कराने में ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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