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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । अर्थ- यत्न करने वाले योगी लोग अपने-आपमें स्थित इस परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। परंतु जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते। व्याख्या- ‘यतन्तो योगनिश्चैनं पश्यन्ति’– यहाँ ‘योगिनः’ पद उन सांख्ययोगी साधकों का वाचक है, जिनका एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने का बन चुका है। यहाँ ‘यतन्तः’ पद साधनपरक है। भीतर की लगन, जिसे पूर्ण किए बिना चैन से न रहा है, यत्न कहलाती है। जिन साधकों का एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है, उनमें असंगता, निर्ममता और निष्कामता स्वतः आ जाती है। उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनन्यभाव से जो उत्कण्ठा, तत्परता, व्याकुलता, विरहयुक्त चिन्तन, प्रार्थना एवं विचार साधक के हृदय में प्रकट होते हैं, उन सबको यहाँ ‘यतन्तः’ पद के अंतर्गत समझना चाहिए। जिसकी प्राप्ति का उद्देश्य बनाया और जिसकी विमुखता को यत्न के द्वारा दूर किया, उसी तत्त्व का योगिजन अपने-आपमें अनुभव करते हैं। परमात्मा के पूर्ण सम्मुख हो जाने के बाद योगी की परमात्मतत्त्व में सदा सहज स्थिति रहती है। यही ‘पश्यन्ति’ पद का भाव है। जो सांख्ययोगी साधक सत्-असत् के विचार द्वारा सत्-तत्त्व की प्राप्ति और असत् संसार की निवृत्ति करना चाहते हैं, विवेक की सर्वथा जागृति होने पर वे अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। ‘आत्मन्यवस्थितम्’ परमात्मतत्त्व से देश-काल की दूरी नहीं। वह समानरूप से सर्वत्र एवं सदैव विद्यमान है। वही सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा है- ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’।[1] इसलिए योगी लोग अपने-आपमें ही इस तत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। सत्ता (अस्तित्व या ‘है’- पन) दो प्रकार की होती है- (1) विकारी और (2) स्वतः सिद्ध है। जो सत्ता उत्पन्न होने के बाद प्रतीत होती है, वह ‘विकारी’ सत्ता कहलाती है और जो सत्ता कभी उत्पन्न नहीं होती, प्रत्युत सदा (अनादिकाल से) ज्यों-की-त्यों रहती है, वह ‘स्वतः सिद्ध’ सत्ता कहलाती है। इस दृष्टि से संसार एवं शरीर की सत्ता ‘विकारी’ और परमात्मा एवं आत्मा की सत्ता ‘स्वतः सिद्ध’ है। विकारी सत्ता को स्वतः सिद्ध सत्ता में मिला देना भूल है।[2] उत्पन्न हुई विकारी सत्ता से संबंध-विच्छेद करके अनुत्पन्न स्वतः सिद्ध सत्ता में स्थित होना ही ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों का भाव है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 10:20
- ↑ विकारी सत्ता (शरीर) को स्वतः सिद्ध सत्ता में मिलाने का तात्पर्य है- अपने को शरीर मानना (अहंता) और शरीर को अपना मानना (ममता)। अपने को शरीर मानने से शरीर सत्य प्रतीत होता है और शरीर को अपना मानने से शरीर में प्रियता होती है।
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