श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
जड पदार्थों का मालिक बन जाने से एक तो इसे उन पदार्थों की ‘कमी’ का अनुभव होता है और दूसरा यह अपने को ‘अनाथ’ मान लेता है। जिसे मालिकपना या अधिकार प्यारा लगता है, वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि जो किसी व्यक्ति, वस्तु, पद आदि का स्वामी बनता है, वह अपने स्वामी को भूल जाता है- यह नियम है। उदाहरणार्थ, जिस समय बालक केवल माँ को अपना मानकर उसे ही चाहता है, उस समय वह माँ के बिना रह ही नहीं सकता। किंतु वही बालक जब बड़ा होकर गृहस्थ बन जाता है और अपने को स्त्री, पुत्र आदि का स्वामी मानने लगता है, तब उसी माँ का पास रहना उसे सुहाता नहीं। यह स्वामी बनने का ही परिणाम है। इसी प्रकार यह जीवात्मा भी शरीरादि जड पदार्थों का स्वामी (ईश्वर) बनकर अपने वास्तविक स्वामी परमात्मा को भूल जाता है- उनसे विमुख हो जाता है। जब तक यह भूल या विमुखता रहेगी, तब तक जीवात्मा दुःख पाता ही रहेगा। ‘ईश्वरः’ पद के साथ ‘अपि’ पद एक विशेष अर्थ रखता है कि यह ईश्वर बना जीवात्मा वायु के समान असमर्थ, जड और पराधीन नहीं है। इस जीवात्मा में ऐसी सामर्थ्य और विवेक है कि यह जब चाहे, तब माने हुए संबंध का छोड़ सकता है और परमात्मा के साथ नित्य संबंध का अनुभव कर सकता है। परंतु संयोगजन्य सुख की लोलुपता के कारण यह संसार से माने हुए संबंध को छोड़ता नहीं और छोड़ना चाहता भी नहीं। जडता (शरीरादि) से तादात्म्य छूटने पर जीवात्मा (गंध की तरह) शरीरों को साथ ले जा सकता ही नहीं। जीव को दो शक्तियाँ प्राप्त हैं- (1) प्राणशक्ति, जिससे श्वासों का आवागमन होता है और (2) इच्छाशक्ति, जिससे भोगों को पाने की इच्छा करता है। प्राणशक्ति हरदम (श्वासोच्छ्वास के द्वारा) क्षीण होती रहती है। प्राणशक्ति का खत्म होना ही मृत्यु कहलाती है। जड का संग करने से कुछ करने और पाने की इच्छा बनी रहती है। |
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