श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’- जीव परमात्मा का अंश है। वह जब तक अपने अंशी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसका आवागमन नहीं मिट सकता। जैसे नदियों के जल को अपने अंशी समुद्र से मिलने पर ही स्थिरता मिलती है, ऐसे ही जीव को अपने अंशी परमात्मा से मिलने पर ही वास्तविक, स्थायी शांति मिलती है। वास्तव में जीव परमात्मा से अभिन्न ही है, पर संसार के (मान हुए) संग के कारण उसको ऊँच-नीच योनियों में जाना पड़ता है। यहाँ ‘परमधाम’ शब्द परमात्मा का धाम और परमात्मा- दोनों का ही वाचक है। यह परमधाम प्रकाश स्वरूप है। जैसे सूर्य अपने स्थान-विशेष पर भी स्थित है और प्रकाश रूप से सब जगह भी स्थित है अर्थात सूर्य और उसका प्रकाश परस्पर अभिन्न हैं, ऐसे ही परमधाम और सर्वव्यापी परमात्मा भी परस्पर अभिन्न हैं। भक्तों की भिन्न-भिन्न मान्यताओं के कारण ब्रह्मलोक, साकेत धाम, गोलोक धाम, देवीद्वीप, शिवलोक आदि सब एक ही परमधाम के भिन्न-भिन्न नाम हैं। यह परमधाम चेतन, ज्ञानस्वरूप, प्रकाश स्वरूप और परमात्मतत्त्व है। यह अवनाशी परमपद आत्मरूप से सबमें समान रूप से अनुस्यूत (व्याप्त) है। अतः स्वरूप से हम उस परमपद में स्थित हैं ही; परंतु जडता (शरीर आदि) से तादात्म्य, ममता और कामना के कारण हमें उसकी प्राप्ति अथवा उसमें अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव नहीं हो रहा है। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने अपने परमधाम का वर्णन करते हुए यह बताया कि उसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते। उसके विवेचन के रूप में अपने अंश जीवात्मा को भी (परमधाम की ही तरह) अपने से अभिन्न बताते हुए, जीव से क्या भूल हो रही है कि जिससे उसको नित्य प्राप्त परमात्मस्वरूप परमधाम का अनुभव नहीं हो रहा है- इसका हेतु सहित वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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