श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः । हे कुन्तीनन्दन ! संपूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करने वाला पिता हूँ। व्याख्या- ‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः’- जरायुज (जेर के साथ पैदा होने वाले मनुष्य, पशु आदि), स्वेदज (पसीने से उत्पन्न होने वाले जूँ, लीख आदि) और उद्भिज्ज (पृथ्वी को फोड़कर उत्पन्न होने वाले वृक्ष, लता आदि)- संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति के ये चार खानि अर्थात स्थान हैं। इन चारों में से एक-एक स्थान से लाखों योनियाँ पैदा होती हैं। उन लाखों योनियों में से एक-एक योनि में भी जो प्राणी पैदा होते हैं, उन सबकी आकृति अलग-अलग होती है। एक योनि में, एक जाति में पैदा होने वाले प्राणियों की आकृति में भी स्थूल या सूक्ष्म भेद रहता है अर्थात एक समान आकृति किसी की भी नहीं मिलती। जैसे, एक मनुष्य योनियों में अरबों वर्षों से अरबों शरीर पैदा होते चले आए हैं, पर आज तक किसी भी मनुष्य की आकृति परस्पर नहीं मिलती। इस विषय में किसी कवि ने कहा है- पाग भाग वाणी प्रकृति, आकृति वचन विवेक । अर्थात पगड़ी, भाग्य, वाणी (कण्ठ), स्वभाव, आकृति, शब्द, विचार-शक्ति और लिखने के अक्षर- ये सभी दो मनुष्यों के भी एक समान नहीं मिलते। इस तरह चौरासी लाख योनियों मे जितने शरीर अनादि काल से पैदा होते चले आ रहे हैं, उन सबकी आकृति अलग-अलग है। चौरासी लाख योनियों के सिवाय देवता, पितर, गन्धर्व, भूत, प्रेत आदि को भी यहाँ ‘सर्वयोनिषु’ पद के अंतर्गत ले लेना चाहिए। ‘तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता’- उपर्युक्त चार खानि अर्थात चौरासी लाख योनियाँ तो शरीरों के पैदा होने के स्थान हैं और उन सब योनियों का उत्पत्ति-स्थान (माता के स्थान में) ‘महद्व्रह्म’ अर्थात मूल प्रकृति है। उस मूल प्रकृति में जीवरूप बीज का स्थापन करने वाला पिता मैं हूँ। भिन्न-भिन्न वर्ण और आकृति वाले नाना प्रकार के शरीरों में भगवान अपने चेतन-अंशरूप बीज को स्थापित करते हैं- इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी में स्थित परमात्मा का अंश शरीरों की भिन्नता से ही भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। वास्तव में संपूर्ण प्राणियों में एक ही परमात्मा विद्यमान हैं।[1] इस बात को एक दृष्टान्त से समझाया जाता है। यद्यपि दृष्टान्त सर्वांश में नहीं घटता, तथापि वह बुद्धि को दार्ष्टान्त के नजदीक ले जाने में सहायक होता है। कपड़ा और पृथ्वी- दोनों में एक ही तत्त्व की प्रधानता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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