श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
मम योनिर्महद्व्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् । अर्थ- हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति-स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है। व्याख्या- ‘मम योनिर्महद्व्रह्म’- यहाँ मूल प्रकृति को ‘महद्व्रह्म’ नाम से कहा गया है, इसके कई कारण हो सकते हैं; जैसे-
सबका उत्पत्ति स्थान होने से इस मूल प्रकृति को ‘योनि’ कहा गया है। इसी मूल प्रकृति से अनन्त ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और इसी में लीन होते हैं। इस मूल प्रकृति से ही सांसारिक अनन्त शक्तियाँ पैदा होती है। इस मूल प्रकृति के लिए ‘मम’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि यह प्रकृति मेरी है। अतः इस पर आधिपत्य भी मेरा ही है। मेरी इच्छा के बिना यह प्रकृति अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कर सकती। यह जो कुछ भी करती है, वह सब मेरी अध्यक्षता में ही करती है।[2] मैं मूल प्रकृति (महद्ब्रह्म) से श्री श्रेष्ठ साक्षात परब्रह्म परमात्मा हूँ- इसको बताने के लिए भगवान ने ‘मम महद्व्रह्म’ पदों का प्रयोग किया है। महद्ब्रह्म से भी श्रेष्ठ परब्रह्म परमात्मा का अंश होते हुए भी जीव परमात्मा से विमुख होकर प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता है। इतना ही नहीं, वह प्रकृति के कार्य तीनों गुणों से संबंध जोड़ लेता है और उससे भी नीचे गिरकर गुणों के भी कार्य शरीर आदि से संबंध जोड़ लेता है और बँध जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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