श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । अर्थ- जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो मान-अपमान में तथा मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है; जो संपूर्ण कर्मों के आरंभ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। व्याख्या- ‘धीरः, समदुःखसुखः’- नित्य अनित्य, सार-असार आदि के तत्त्व को जानकर स्वतः सिद्ध स्वरूप में स्थित होने से गुणातीत मनुष्य धैर्यवान कहलाता है। पूर्वकर्मों के अनुसार आने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का नाम सुख-दुःख है अर्थात प्रारब्ध के अनुसार, इंद्रियों आदि के अनुकूल परिस्थिति को ‘सुख’ कहते हैं और शरीर, इंद्रियों आदि के प्रतिकूल परिस्थिति को ‘दुःख’ कहते हैं। गुणातीत मनुष्य इन दोनों में सम रहता है। तात्पर्य है कि सुख-दुःख रूप ब्रह्म परिस्थितियाँ उसके कहे जाने वाले अंतःकरण में विकार पैदा नहीं कर सकतीं, उसको सुखी-दुःखी नहीं कर सकतीं। ‘स्वस्थः’- स्वरूप में सुख-दुःख है ही नहीं। स्वरूप से तो सुख-दुःख प्रकाशित होते हैं। अतः गुणातीत मनुष्य आने-जाने वाले सुख-दुःख का भोक्ता नहीं बनता, प्रत्युत अपने नित्य-निरंतर रहने वाला स्वरूप में स्थित रहता है। ‘समलोष्टाश्मकाश्चनः’- उसका मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण (द्वेष) होता है। परंतु व्यवहार में वह ढेले को ढेले की जगह रखता है, पत्थर को पत्थर की जगह रखता है और स्वर्ण को स्वर्ण की जगह (तिजोरी आदि में) रखता है। तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी प्राप्ति-अप्राप्ति में उसको हर्ष-शोक नहीं होते, वह सम रहता है, तथापि उनसे व्यवहार तो यथायोग्य ही करता है। ढेले, पत्थर और स्वर्ण का ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनों का ज्ञान होते हुए भी इनमें राग-द्वेष न हों। ज्ञान कभी दोषी नहीं होता, विकार ही दोषी होते हैं। ‘तुल्यप्रियाप्रियः’- क्रियमाण कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में अर्थात उनके तात्कालिक फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में भी वह सम रहता है। ‘तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः’- निन्दा और स्तुति में नाम की मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्य का नाम के साथ कोई संबंध नहीं रहता; अतः कोई निन्दा करे तो उसके चित्त में खिन्नता नहीं होती और कोई स्तुति करे तो उसके चित्त में प्रसन्नता नहीं होती। इसी प्रकार निन्दा करने वालों के प्रति उसका द्वेष नहीं होता और स्तुति करने वालों के प्रति उसका राग नहीं होता। साधारण मनुष्यों की यह एक आदत बन जाती है कि उनको अपनी निंदा बुरी लगती है और स्तुति अच्छी लगती है। परंतु जो गुणों से ऊँचे उठ जाते हैं, उनको निंदा-स्तुति का ज्ञान तो होता है और वे बर्ताव भी सबके साथ यथोचित ही करते हैं, पर उनमें निन्दा-स्तुति को लेकर खिन्नता-प्रसन्नता नहीं होती। कारण कि वे जिस तत्त्व में स्थित हैं, वहाँ गुणों वाली परकृत निन्दा-स्तुति पहुँचती ही नहीं। |
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