श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । अर्थ- जिस समय सत्त्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है, तो वह उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है। व्याख्या- ‘यदा सत्त्वे प्रवृद्धे.....प्रतिपद्यते’- जिस काल में जिस- किसी देवधारी मनुष्य में, चाहे वह सत्त्व-गुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी ही क्यों न हो, जिस- किसी कारण से सत्त्वगुण तात्कालिक बढ़ जाता है अर्थात सत्त्व-गुण के कार्य स्वच्छता, निर्मलता आदि वृत्तियाँ तात्कालिक बढ़ जाती हैं, उस समय अगर उस मनुष्य के प्राण छूट जाते हैं, तो वह उत्तम (शुभ) कर्म करने वालों के निर्मल लोकों में चला जाता है। ‘उत्तमविदाम्’- कहने का तात्पर्य है कि जो मनुष्य उत्तम (शुभ) कर्म ही करते हैं, अशुभ-कर्म कभी करते ही नहीं अर्थात उत्तम ही उनके भाव हैं, उत्तम ही उनके कर्म हैं और उत्तम ही उनका ज्ञान है, ऐसे पुण्यकर्मा लोगों का जिन पर लोकों पर अधिकार हो जाता है, उन्हीं निर्मल लोकों में वह मनुष्य चला जाता है, जिसका शरीर सत्त्वगुण के बढ़ने पर छूटा है। तात्पर्य है कि उम्रभर शुभ-कर्म करने वालों को जिन ऊँचे-ऊँचे लोकों की प्राप्ति होती है, उन्हीं लोकों में तात्कालिक बढ़े हुए सत्त्वगुण की वृत्ति में प्राण छूटने वाला जाता है। सत्त्वगुण की वृद्धि में शरीर छोड़ने वाले मनुष्य पुण्यात्माओं के प्राप्तव्य ऊँचे लोकों में जाते हैं- इससे सिद्ध होता है कि गुणों से उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ कर्मों की अपेक्षा कमज़ोर नहीं है। अतः सात्त्विक वृत्ति भी पुण्यकर्मों के समान ही श्रेष्ठ है। इस दृष्टि से शास्त्रविहित पुण्यकर्मों में भी भाव का ही महत्त्व है, पुण्यकर्म विशेष का नहीं। इसलिए सात्त्विक भाव का स्थान बहुत ऊँचा है। पदार्थ, क्रिया, भाव और उद्देश्य- ये चारों क्रमशः एक दूसरे से ऊँचे होते हैं। रजोगुण और तमोगुण की अपेक्षा सत्त्वगुण की वृत्ति सूक्ष्म और व्यापक होती है। लोक में भी स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म का आहार कम होता है; जैसे- देवता लोग सूक्ष्म होने से केवल सुगन्धि से ही तृप्त हो जाते हैं। हाँ, स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में शक्ति अवश्य अधिक होती है। यही कारण है कि सूक्ष्मभाव की प्रधानता से अंत समय में सत्त्वगुण की वृद्धि मनुष्य को ऊँचे लोकों में ले जाती है। ‘अमलान्’ कहने का तात्पर्य है कि सत्त्वगुण का स्वरूप निर्मल है; अतः सत्त्वगुण के बढ़ने पर जो मरता है, उसको निर्मल लोकों की ही प्राप्ति होती है। यहाँ यह शंका होती है कि उम्रभर शुभ-कर्म करने वालों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, उन लोकों में सत्त्वगुण की वृत्ति बढ़ने पर मरने वाला कैसे चला जाएगा? भगवान की यह एक विशेष छूट है कि अंतकाल में मनुष्य की जैसी मति होती है, वैसी ही उसकी गति होती है।[1] अतः सत्त्वगुण की वृत्ति के बढ़ने पर शरीर छोड़ने वाला मनुष्य उत्तम लोकों में चला जाए- इसमें शंका की कोई बात ही नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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