श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । अर्थ- वह परमात्मा संपूर्ण ज्योतियों का भी ज्योति और अज्ञान से अत्यंत परे कहा गया है। वह ज्ञान स्वरूप, जानने योग्य, ज्ञान (साधन-समुदाय) से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान है। व्याख्या- ‘ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः’- ज्योति नाम प्रकाश (ज्ञान) का है अर्थात जिनसे प्रकाश मिलता है, ज्ञान होता है, वे सभी ज्योति हैं। भौतिक पदार्थ सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारा, अग्नि, विद्युत आदि के प्रकाश में दीखते हैं; अतः भौतिक पदार्थों की ज्योति (प्रकाशक) सूर्य, चंद्र आदि हैं। वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दों का ज्ञान कान से होता है; अतः शब्द की ज्योति (प्रकाशक) ‘कान’ है। शीत-उष्ण, कोमल-कठोर आदि के स्पर्श का ज्ञान त्वचा से होता है; अतः स्पर्श की ज्योति (प्रकाशक) ‘त्वचा’ है। श्वेत, नील, पीत आदि रूपों का ज्ञान नेत्र से होता है; अतः रूप की ज्योति (प्रकाशक) ‘नेत्र’ है। खट्टा, मीठा, नमकीन आदि रसों का ज्ञान जिह्वा से होता है; अतः रस की ज्योति (प्रकाशक) ‘जिह्वा’ है। सुगन्ध-दुर्गन्ध का ज्ञान नाक से होता है; अतः गंध की ज्योति (प्रकाशक) ‘नाक’ है। इन पाँचों इंद्रियों से शब्दादि पाँचों विषयों का ज्ञान तभी होता है, जब इन इंद्रियों के साथ मन रहता है। अगर उनके साथ मन न रहे तो किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता। अतः इंद्रियों की ज्योति (प्रकाशक) ‘मन’ है। मन से विषयों का ज्ञान होने पर भी जब तक बुद्धि उसमें नहीं लगती, बुद्धि मन के साथ नहीं रहती, तब तक उस विषय का स्पष्ट और स्थायी ज्ञान नहीं होता। बुद्धि के साथ रहन से ही उस विषय का स्पष्ट और स्थायी ज्ञान होता है। अतः मन की ज्योति (प्रकाशक) ‘बुद्धि’ है। बुद्धि से कर्तव्य-कर्तव्य, सत्-असत्, नित्य-अनित्य का ज्ञान होने पर भी अगर स्वयं (कर्ता) उसको धारण नहीं करता, तो वह बौद्धिक ज्ञान ही रह जाता है; वह ज्ञान जीवन में, आचरण में नहीं आता। वह बात स्वयं में नहीं बैठती। जो बात स्वयं में बैठ जाती है, वह फिर कभी नहीं जाती। अतः बुद्धि की ज्योति (प्रकाशक) ‘स्वयं’ है। स्वयं भी परमात्मा का अंश है और परमात्मा अंशी है। स्यवं में ज्ञान, प्रकाश परमात्मा से ही आता है। अतः स्वयं की ज्योति (प्रकाशक) ‘परमात्मा’ है। उस स्वयं का प्रकाश परमात्मा को कोई भी प्रकाशित नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा का प्रकाश (ज्ञान) स्वयं में आता है। स्वयं का प्रकाश बुद्धि में, बुद्धि का प्रकाश मन में, मन का प्रकाश इन्द्रियों में और इंद्रियों का प्रकाश विषयों में आता है। मूल में इन सबमें प्रकाश परमात्मा से ही आता है। अतः इन सब ज्योतियों का ज्योति, प्रकाशकों का प्रकाशक परमात्मा ही है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) विषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता ।। सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ।। (मानस 1।117।3)
(2) जो ज्योतियों का ज्योति है, सबसे प्रथम जो भासता। अव्यय सनातन दिव्य दीपक, सर्व विश्व प्रकाशता ।।
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