श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
सबसे बड़ा भय मौत का होता है। विवेकशील कहे जाने वाले पुरुषों को भी प्रायः मौत का भय बना रहता है।[1] साधक को भी प्रायः सत्संग-भजन-ध्यानादि साधनों से शरीर के कृश होने आदि का भय रहता है। उसको कभी-कभी यह भय भी होता है कि संसार से सर्वथा वैराग्य हो जाने पर मेरे शरीर और परिवार का पालन कैसे होगा! साधारण मनुष्य को अनुकूल वस्तु की प्राप्ति में बाधा पहुँचाने वाले अपने से बलवान मनुष्य से भय होता है। ये सभी भय केवल शरीर (जड़ता) के आश्रय से ही पैदा होते हैं। भक्त सर्वथा भगवच्चरणों के आश्रित रहता है, इसलिए वह सदा-सर्वदा भयरहित होता है। साधक को भी तभी तक भय रहता है, जब तक वह सर्वथा भगवच्चरणों के आश्रित नहीं हो जाता। सिद्ध भक्त को तो सदा, सर्वत्र अपने प्रिय प्रभु की लीला ही दिखती है। फिर भगवान की लीला उसके हृदय में भय कैसे पैदा कर सकती है। मन का एकरूप न रहकर हलचलयुक्त हो जाना ‘उद्वेग’ कहलाता है। इस (पंद्रहवें) श्लोक में ‘उद्वेग’ शब्द तीन बार आया है। पहली बार उद्वेग की बात कहकर भगवान ने यह बताया कि भक्त कि कोई भी क्रिया उसकी ओर से किसी मनुष्य के उद्वेग का कारण नहीं बनती। दूसरी बार उद्वेग की बात कहकर यह बताया कि दूसरे मनुष्यों की किसी भी क्रिया से भक्त के अंतःकरण में उद्वेग नहीं होता। इसके सिवाय दूसरे कई कारणों से भी मनुष्य को उद्वेग हो सकता है; जैसे बार-बार कोशिश करने पर भी अपना कार्य पूरा न होना, कार्य का इच्छानुसार फल न मिलना, अनिच्छा से ऋतु-परिवर्तन; भूकम्प, बाढ़ आदि दुःखदायी घटनाएँ घटना; अपनी कामना, मान्यता, सिद्धांत अथवा साधन में विघ्न पड़ा आदि। भक्त इन सभी प्रकार के उद्वेगों से सर्वथा मुक्त होता है- यह बताने के लिए ही तीसरी बार उद्वेग की बात कही गयी है। तात्पर्य है कि भक्त के अंतःकरण में ‘उद्वेग’ नाम की कोई चीज रहती ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ।। (पातञ्जलयोगदर्शन 2।9)
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