श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । अर्थ- परंतु हे शत्रुतापन अर्जुन! इस प्रकार (चतुर्भुज रूप वाला) मैं अनन्यभक्ति से ही तत्त्व से जानने में, सगुणरूप से देखने में और प्राप्त करने में शक्य हूँ। व्याख्या- ‘भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन’- यहाँ ‘तु’ पद से पहले बताये हुए साधनों से विलक्षण साधन बताने के लिए आया है। भगवान कहते हैं कि ‘हे अर्जुन! तुमने मेरा जैसा शंख-चक्र-गदा- पद्मधारी’ चतुर्भुज रुप देखा है, वैसा रूप वाला मैं यज्ञ, दान, तप आदि के द्वारा नहीं देखा जा सकता, प्रत्युत अनन्यभक्ति के द्वारा ही देखा जा सकता हूँ। अनन्यभक्ति का अर्थ है- केवल भगवान का ही आश्रय हो, सहारा हो, आशा हो, विश्वास हो[1] भगवान के सिवाय किसी योग्यता, बल, बुद्धि दि का किञ्चिन्मात्र भी सहाना न हो। इनका अंतःकरण में किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व न हो। यह अनन्यभक्ति स्वयं से ही होती है, मन-बुद्धि-इंद्रियों आदि के द्वारा नहीं। तात्पर्य है कि केवल स्वयं की व्याकुलता पूर्वक उत्कण्ठा हो, भगवान के दर्शन बिना एक क्षण भी चैन न पड़े। ऐसी जो भीतर में स्वयं की बेचैनी है, वही भगवत्प्राप्ति में खास कारण है। इस बेचैनी में, व्याकुलता में अनन्त जन्मों के अनन्त पाप भस्म हो जाते हैं। ऐसी अनन्यभक्ति वालों के लिए ही भगवान ने कहा है- ‘जो अनन्यचित वाला भक्त नित्य-निरंतर मेरा चिन्तन करता है, उसके लिए मैं सुलभ हूँ’;[2] और ‘जो अनन्यभक्त मेरा चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ’।[3] अनन्यभक्ति का दूसरा तात्पर्य यह है कि अपने में भजन-स्मरण करने का, साधन करने का, उत्कण्ठापूर्वक पुकारने का जो कुछ सहारा है, वह सहारा किञ्चिन्मात्र भी न हो। फिर साधन किसलिए करना है? केवल अपना अभिमान मिटाने के लिए अर्थात अपने में जो साधन करने के बल का भान होता है, उसको मिटाने के लिए साधन करना है। तात्पर्य है कि भगवान की प्राप्ति साधन करने से नहीं होती, प्रत्युत साधन का अभिमान गलने से होती है। साधन का अभिमान गल जाने से साधक पर भगवान की शुद्ध कृपा असर करती है अर्थात उस कृपा के आने में कोई आड़ नहीं रहती और (उस कृपा से) भगवान की प्राप्ति हो जाती है। ‘ज्ञातं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुम्’- ऐसी अनन्यभक्ति से ही मैं तत्त्व से जाना जा सकता हूँ, अनन्यभक्ति से ही मैं देखा जा सकता हूँ और अनन्यभक्ति से ही मैं प्राप्त किया जा सकता हूँ। ज्ञान के द्वारा भी भगवान तत्त्व से जाने जा सकते हैं और प्राप्त किए जा सकते हैं[4], पर दर्शन देने के लिए भगवान बाध्य नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ।(1) एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास। एक राम धनश्याम हित चातक तुलसीदास ।। (दोहावली 277)
(2) एक बानि करुऩानिधान की। सो प्रिय जाके गति न आन की ।। (मानस 3।10।4) - ↑ गीता 8:14
- ↑ गीता 9:22
- ↑ गीता 18:55
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