श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
‘यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु’- मैंने आपको बराबरी का साधारण मित्र समझकर हँसी-दिल्लगी करते समय, रास्ते में चलते-फिरते समय, शय्या पर सोते-जागते समय, आसन पर उठते-बैठते समय, भोजन करते समय जो कुछ अपमान के शब्द कहे, आपका असत्कार किया अथवा हे अच्युत! आप अकेले थे, उस समय या उन सखाओं, कुटुम्बीजनों, सभ्य व्यक्तियों आदि के सामने मैंने आपका जो कुछ तिरस्कार किया है, वह सब मैं आपसे क्षमा करवाता हूँ- ‘एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।’ अर्जुन और भगवान की मित्रता का ऐसा वर्णन आता है कि जैसे दो मित्र आपस में खेलते हैं, ऐसे ही अर्जुन भगवान के साथ खेलते थे। कभी स्नान करते तो अर्जुन हाथों से भगवान के ऊपर जल फेंकते और भगवान अर्जुन के ऊपर। कभी अर्जुन भगवान के पीछे दौड़ते तो कभी भगवान अर्जुन के पीछे दौड़ते। कभी दोनों आपस में हँसते-हँसाते। कभी दोनों परस्पर अपनी-अपनी विशेष कलाएँ दिखाते। कभी भगवान सो जाते तो अर्जुन कहते- ‘तुम इतने फैलकर सो गए हो, क्या कोई दूसरा नहीं सोयेगा? तुम अकेले ही हो क्या?’ कभी भगवान आसन\ पर बैठ जाते तो अर्जुन कहते- ‘आसन पर तुम अकेले ही बैठोगे क्या? और किसी को बैठने दोगे कि नहीं? अकेले ही आधिपत्य जमा लिया! जरा एक तरफ तो खिसक जाओ।’ इस प्रकार अर्जुन भगवान के साथ बहुत ही घनिष्ठता का व्यवहार करते थे।[1] अब अर्जुन उन बातों को याद करके कहते हैं कि ‘हे भगवान! मेरे को तो सब याद भी नहीं हैं। यद्यपि आपने मेरे तिरस्कारों की तरफ खयाल नहीं किया, तथापि मेरे द्वारा आपके बहुत से तिरस्कार हुए हैं, इसलिए मैं अप्रमेयस्वरूप आपसे सब तिरस्कार क्षमा करवाता हूँ।’ भगवान को ‘अप्रमेय’ कहने का तात्पर्य है कि दिव्यदृष्टि होने पर भी आप दिव्यदृष्टि के अंतर्गत नहीं आते हैं। संबंध- अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन भगवान की महत्ता और प्रभाव का वर्णन करके पुनः क्षमा करने के लिए प्रार्थना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादिश्वैक्याद् वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः ।।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्व सेहे महान् महितया कुमतेरघं मे ।। (श्रीमद्भा. 1।15।19)
अर्जुन कहते हैं- ‘भगवान श्रीकृष्ण के साथ सोने, बैठने, घूमने, बातचीत करने और भोजनादि करने में मेरा- उनका ऐसा सहज भाव हो गया था कि मैं कभी-कभी ‘हे सखे! तुम बड़े सच बोलने वाले हो!’ ऐसा कहकर आक्षेप भी करता था। परंतु वे महात्मा प्रभु अपने बड़प्पन के अनुसार मुझ कुबुद्धि के उन समस्त तिरस्कारों को वैसे ही सहा करते थे, जैसे सखा अपने सखा के या पिता अपने पुत्र के तिरस्कार को सहा करता है।’
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