श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
‘सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः’- सिद्धों के, संत-महात्माओं के और भगवान की तरफ चलने वाले साधकों के जितने समुदाय हैं, वे सब-के-सब आपके नामों और गुणों के कीर्तन को तथा आपकी लीलाओं को सुनकर आपको नमस्कार करते हैं। यह ध्यान रहे कि यह सब-का-सब दृश्य भगवान के नित्य, दिव्य, अलौकिक विराटरूप में ही है। उसी में एक-एक से विचित्र लीलाएँ हो रही हैं। ‘स्थाने’- यह सब यथोचित ही है और ऐसा ही होना चाहिए तथा ऐसा ही हो रहा है। कारण कि आपकी तरफ चलने से शांति, आनंद, प्रसन्नता होती है, विघ्नों का नाश होता है, और आपसे विमुख होने पर दुःख-ही-दुःख, अशांति-ही-अशांति होती है। तात्पर्य है कि आपका अंश जीव आपके सम्मुख होने से सुख पाता है, उसमें शांति, क्षमा, नम्रता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं और आपके विमुख होने से दुःख पाता है- यह सब उचित ही है। यह जीवात्मा परमात्मा और संसार के बीच का है। यह स्वरूप से तो साक्षात परमात्मा का अंश है और प्रकृति के अंश को इसने पकड़ा है। अब यह ज्यों-ज्यों प्रकृति की तरफ झुकता है, ज्यों-ही-ज्यों इसमें संग्रह और भोगों की इच्छा बढ़ती है। संग्रह और भोगों की प्राप्ति के लिए यह ज्यों-ज्यों उद्योग करता है, त्यों-ही-त्यों इसमें अभाव, अशांति, दुःख, जलन, संताप आदि बढ़ते चले जाते हैं। परंतु संसार से विमुख होकर यह जीवात्मा ज्यों-ज्यों भगवान के सम्मुख होता है, त्यों-ही-त्यों यह आनन्दित होता है और इसका दुःख मिटता चला जाता है। संबंध- पूर्वश्लोक में ‘स्थाने’ पद से जो औचित्य बताया है, उसकी आगे के चार श्लोकों में पुष्टि करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्रानि स्वकर्मसु। कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि ।। (श्रीमद्भा. 10।6।3) ‘जहाँ लोग अपने प्रतिदिन के कामों में राक्षसों के भय को दूर भगाने वाले भगवान के नाम, गुण, लीला के श्रवण, कीर्तन आदि नहीं करते, वहाँ ऐसी राक्षसियों का बल चलता है।’
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