श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । अर्थ- उन नित्य-निरंतर मेरे में लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है। व्याख्या- [भगवन्निष्ठ भक्त भगवान को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं।[1] उनका तो एक ही काम है- हरदम भगवान में लगे रहना। भगवान में लगे रहने के सिवाय उनके लिए और कोई काम ही नहीं है। अब सारा-का-सारा काम, सारी जिम्मेवारी भगवान की ही है अर्थात उन भक्तों से जो कुछ कराना है, उनको जो कुछ देना है आदि सब काम भगवान का ही रह जाता है। इसलिए भगवान यहाँ (दो श्लोकों में) उन भक्तों को समता और तत्त्वज्ञान देने की बात कह रहे हैं।] ‘तेषां सततयुक्तानाम्’- नवें श्लोक के अनुसार जो भगवान में ही चित्त और प्राण वाले हैं, भगवान के गुण, प्रभाव, लीला, रहस्य आदि को आपस में एक दूसरे को जनाते हुए तथा भगवान के नाम, गुणों का कथन करते हुए नित्य-निरंतर भगवान में ही संतुष्ट रहते हैं और भगवान में ही प्रेम करते हैं, ऐसे नित्य-निरंतर भगवान में लगे हुए भक्तों के लिए यहाँ ‘सततयुक्तानाम’ पद आया है। ‘भजतां प्रीतिपूर्वकम्’- वे भक्त न ज्ञान चाहते हैं, न वैराग्य। जब वे पारमार्थिक ज्ञान, वैराग्य आदि भी नहीं चाहते, तो फिर सांसारिक भोग तथा अष्टसिद्धि और नवनिधि चाह ही कैसे सकते हैं! उनकी दृष्टि इन वस्तुओं की तरफ जाती ही नहीं। उनके हृदय में सिद्धि आदि का कोई आदर नहीं होता, कोई मूल्य नहीं होता। वे तो केवल भगवान को अपना मानते हुए प्रेमपूर्वक स्वाभाविक ही भगवान के भजन में लगे रहते हैं। उनका किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदि से किसी तरह का कोई संबंध नहीं रहता। उनका भजन, भक्ति यही है कि हरदम भगवान में लगे रहना है। भगवान की प्रीति में वे इतने मस्त रहते हैं कि उनके भीतर स्वप्न में भी भगवान के सिवाय अन्य किसी की इच्छा जाग्रत नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न पारमेष्ठ्यं न महेंद्रधिष्ण्यं न सार्वभौमंन रसाधिपत्यम् ।
न योगासिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ।। (श्रीमद्भा. 11।14।14)
‘स्वयं को मेरे अर्पित करने वाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मा का पद, इंद्र का पद, संपूर्ण पृथ्वी का राज्य, पातालादि लोकों का राज्य, योग की समस्त सिद्धियाँ और मोक्ष को भी नहीं चाहता।’
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