श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
उत्तर- ब्रह्मा, महादेव, सूर्य, चन्द्रमा, दुर्गा, अग्नि, वरुण, यम, इन्द्र आदि जितने भी शास्त्रोक्त देतवा हैं- शास्त्रों में जिनके पूजन का विधान है- उन सबका वाचक यहाँ ‘देव’ शब्द है। ‘द्विज’ शब्द ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीनों वर्णों का वाचक होने पर भी यहाँ केवल ब्राह्मणों ही के लिये प्रयुक्त है। क्योंकि शास्त्रानुसार ब्राह्मण ही सबके पूज्य हैं। ‘गुरु’ शब्द यहाँ माता, पिता, आचार्य, वृद्ध एवं अपने से जो वर्ण, आश्रम और आयु आदि में किसी प्रकार भी बड़े हों उन सबका वाचक है। तथा ‘प्राज्ञ’ शब्द यहाँ परमेश्वर के स्वरूप को भली-भाँति जानने वाले महात्मा ज्ञानी पुरुषों का वाचक है। इन सबका यथायोग्य आदर-सत्कार करना; इनको नमस्कार करना; दण्डवत्-प्रणाम करना; इनके चरण धोना; इन्हें चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि समर्पण करना, इनकी यथायोग्य सेवा आदि करना और इन्हें सुख पहुँचाने की उचित चेष्टा करना आदि इनका पूजन करना है। प्रश्न- ‘शौचम्’ पद यहाँ किस शौच का वाचक है? प्रश्न- ‘आर्जवम्’ पद यहाँ किसका वाचक है? उत्तर- ‘आर्जवम्’ पद सीधेपन का वाचक है। यहाँ शारीरिक तप के निरूपण में इसका वर्णन किया गया है, अतएव यह शरीर की अकड़ और ऐंठ आदि वक्रता के त्याग का और शारीरिक सरलता का वाचक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 16। 3
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